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Showing posts from 2020

क्या याद है?

हम दोनों जब भी मिलते, सिर्फ हंसते थे। ९थ बी की क्लास में मैं तुमसे पहली बार मिली। मैं एक बहुत छोटे कॉन्वेंट इंग्लिश मीडियम स्कूल से बहुत बड़े कॉन्वेंट इंग्लिश मीडियम स्कूल में आ गई थी। स्कूल के समय के दोस्तों के बारे में सोचते है तो याद नहीं आता कि कैसे दोस्ती शुरू हुई। कॉलेज के दोस्तों के साथ कुछ कुछ याद रह जाता है। खैर, वो शुरुआत याद करने की ज़रूरत भी नहीं है। मुझे याद है में, वैशाली और प्रशांत बहुत हंसते रहते, पूरे दिन क्लास में। इतने सारे और वाकई बहुत अच्छे क्वालिटी के जोक्स हम मारते, अगर आज वैसे होते तो स्टैंड अप में खूब शोहरत कमा लेते। टीचर की नक़ल उतारना तो आम बात थी। फ़िर हम दोनों को क्लास के बाहर निकाल दिया जाता। पूरे साल क्लास में मैं एक ही लड़की थी, जो एक लड़के के साथ बाहर निकाल दी गई। एक टीचर को तो लगता की हमारा चक्कर चल रहा है। लेकिन हम दोनों की हंसी नहीं रुकती। हमारी क्लास में परमानेंट सीटिंग सिस्टम नहीं, रोटेशनल सीटिंग सिस्टम होता था। मुझे लगता है कि हम दोनों ही इंतजार करते की कब एक दूसरे के अगल बगल वाली बेंच पर बैठ जाए और फ़िर से हंसना चालू करे। मतलब हर १५ मिनट में एक न...

ज़िम्मेदार

 एक बार फ़िर मौक़ा मिला ज़िम्मेदारी उठाने का। एक बार फ़िर मैं भाग गई। हा, तुमने सोचा होगा, तुम तो हो ही ऐसी। अगर ज़िम्मेदार होती तो शादी करती, बच्चे पैदा करती, एक जगह नौकरी करती, एक जगह टिकी रहती। हा, मैंने फ़िर से तुम्हें निराश नहीं किया, मैं भाग आयी। अब मेरा पीछा छोड़ दो थोड़ी देर के लिए, मुझे कहने दे अपने मन की बात, या फ़िर निकालने दे अपनी भड़ास। ये तो पता है की ज़िममेदारी किसी को भी नहीं पसंद, और ये हमेशा थोपी जाती है, फ़िर लोगों को मज़ा आने लगता है, ज़िम्मेदारी उठाने में। ज़िन्दगी यूं ही निकल जाती है। मुझे भी अच्छा लगता है अब। इन बच्चों की ज़िम्मेदारी ज़िम्मेदारी नहीं लगती है, वो तो प्यार है।  पर ज़िम्मेदारी का भी तो एक संदर्भ होता होगा, कुछ नियम, कानून, इंसेंटिव होता होगा। एक दिन ऐसे ही कोई उठ कर बोल सकता है कि ज़िम्मेदारी ले लो। पहले इतनी बार मिन्नते की कि दो दिन और रहने दो इनको मेरे पास, लेकिन तुम ट्स से मस न हुए। मुझे भाग कर निश्चित समय पर ले कर आना पड़ा तुम्हारे पास।  इस बार भी तुमने ऐसी ही किसी दुविधा में डाल दिया। मैंने मना तो कर दिया है तुम्हे की मैं नहीं ध...

प्रेम का संदेश

 प्रेम का संदेश प्रेम का संदेश कैसा होता है? उसका रंग कैसा होता है, उसकी खुशबू कैसी होती है, उसका आकार कैसा होता है, उसका संगीत कैसा होता है, उसके शब्द कैसे होते है? ये संदेश जीवन में कितनी बार मिलता है? या दिन में, या महीने में, या साल में कितनी बार मिलता है? कितने लोगों से मिलता है, या एक ही से मिलता है, या कुछ ही लोगों से मिलता है? क्या हमको पता चलता है कि कौनसा संदेश प्रेम भरा है, या दोस्ती भरा या नफरत भरा? कितने प्रकार के प्रेम संदेश होते है दुनिया में, इसकी कोई थिअरी है क्या? मुझे तो कइयों प्रेम संदेश मिले है, ऐसा मुझे लगता है। ये कहानी मैं सीधे ही उन घटनाओं से शुरू कर सकती थी, लेकिन मुझे सस्पेंस बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए अब आगे पढ़े। एक और डिस्क्लेमर। ये सारे किस्से मर्दों के साथ है, लेकिन उनकी मर्दानगी को में इंसिदेंटल मानना चाहती हूं। लेकिन अगले ही क्षण ऐसा भी लगता है कि वे सभी अगर मर्द नहीं होते, तो ये प्रेम के संदेश मैं नहीं जान पाती। तो मैं तैयार हूं जज होने के लिए। एक वीरान सा ५० एकड़ की ज़मीन। मैंने सोचा था गायों के लिए छांव होनी चाहिए। अखिलेश के साथ ठाना ...

छत

छत नीचे जाना निषेध था। घर पर पूरा दिन रहना मुश्किल था। बची सिर्फ एक छत। दो सहेलियां जो आमने सामने रहती थी, कभी कभार मिलती थी, काम के व्यस्तता के कारण, अब तो रोज़ ही उन्हें घर पर रहना था। चलो छत ही बची थी अब टहलने को।  छत पर हर शाम जाने लगे। कई दिन तो अपने साथ क्या क्या हुआ इस आपबीती सुनाते हुए निकल गए। ऑफिस में अपना करियर ग्राफ कैसे बढ़ा या घटा, कौनसे टीम मेंबर ने कहां और कब और कैसे धोखा दिया, किसने साथ दिया, किसने मदद की, ये सब डिस्कस हुआ।  फ़िर प्यार की बातें होने लगी। कौन ऑफिस में अच्छा लगता? ऑफिस में नहीं तो बस स्टैंड रेलवे स्टेशन या बगल वाले ऑफिस का कोई लड़का कोई तो प्रेम भरी कहानी होती ही है, जिसका वृतांतपूर्ण डिस्कशन होता। फ़िर जब ये सब ख़त्म होने लगा, लेकिन छत पर जाना अभी भी ज़रूरी था, तो दोनों आसमान देखती। पक्षी - कौआ और कबूतर ही वहां पर थे, सो कुछ बातें पक्षियों की हो जाती। आसमान देख पहाड़ों पर बिताई हुई छुट्टी, या लोनावला की बारिश वाली यादें, या मुन्नार के पहाड़, कोई हॉलिडे तो याद ही आ जाता। फ़िर सपने देखे जाने लगते। एक बकट लिस्ट बनने लगती। इन जगहों पर जाना है, ये स...

लिखना

आज समझ नहीं आता कि क्या लिखूं। ऐसा हर क्षण महसूस करती हूं। ख्याल तो आते रहते हैं। कुछ ख्याल नये होते हैं, कुछ सालों से आते ही जा रहे हैं। जब ख्याल नये नये आते है, तो लगता है कि मैं जी रही हूं। सांस ले रही हूं। मेरा जीना सार्थक हुआ है, कम से कम आज के दिन तो सही। जिस दिन कोई नया ख्याल नहीं आता, उस दिन तो माता रूपी आवाज़ अंदर से आने लगती है, तेरा जीना तो बहुत ही विफल रहा है। मां बचपन में कहती थी कि कुछ तो बड़ा काम करना चाहिए। उसके बड़े काम के क्या मायने है, ये तो पता नहीं। लेकिन उस ' बड़े काम ' की लालसा में जीती रहती हूं। प्रेशर में तो नहीं जीती हूं, लेकिन वो चीज कचोटती तो खूब ही है।  एक और चीज़ मां के बारे में लगती है मुझे। मां से  मुझे परफेक्शन भी शायद मिला था। वो परफेक्शन को में कहां छोड़ अायी, या पकड़ रखा है, इसका कोई पता जवाब नहीं है।  कहते है कि जिनका सन साइन स्कॉर्पियो होता है, वो परफेक्शनिस्ट होते है। मेरे अंदर कहां से आता हैं, ये तो ज़रा भी पता नहीं है, सिर्फ इतना पता है, कि ज़िन्दगी को ज़्यादा फ़ायदा हुआ नहीं उससे। वहीं मोड़ पर है जहां सब है। लेकिन फिर याद आता है क...

मौत

ये साल कई मौतें देखी। कई किस्म की मौंतें।  मौत के पहले जन्म होना भी देखा। जब वो पेट से थी, उसे भरपूर खाना खिलाया। भरपूर कितना भरपूर होता है, वो संदेहास्पद है। उसे दूसरे लोग भी खिलाते थे। फिर उसने जन्म दिया। खाना तो हम सब मिल कर देते रहते। फ़िर पिल्लू भी बाहर आने लगे। जब तक वो बीमार नहीं हुए, तब तक सब कुछ कितना सुन्दर था। नाचते रहते मेरे साथ गली में। मेरे बब्बन और लैला से डर कर अपनी अम्मा के पास भाग जाते। मुझे उनको दूध पिलाने के लिए बब्बन और लैला से बचकर बाहर जाना पड़ता। लेकिन मुझे बहुत मज़ा आता। फ़िर एक पिल्लू बीमार पड़ी। पहली बार एक रोड के पिल्लू को लेकर डॉक्टर के पास गयी। जाना इतनी बड़ी बात नहीं थी, जितना ये निर्णय लेना कि जाना चाहिए या नहीं। कुत्तों के लिए कुछ भी करने का कर्म उतना मेहनतकश नहीं है, जितना ये सोचना की मैं ये करुँ या नहीं। ये सोचने में ही सबसे ज़्यादा ऊर्जा व्यय होती है। कई सवाल आते है- मैं करूँ या नहीं? करूँ तो क्यों करून? अगर नहीं करुँगी तो क्या होगा? अगर करुँगी तो क्या होगा? सिर्फ एक बार डॉक्टर के पास ले जाने से कुछ नहीं होगा, इसका आगे भी ध्यान रखना होगा, ऐसी हालत मे...

गाँव निर्दयी है!

हमारे देश में गाँवों पर कई बातें हुई है,और होती रहेगी। गाँव का महत्त्व जाने क्यों भारत देश में ही बार बार दोहराया जाता है। क्यों गाँव को भूला नहीं जा सकता? क्यों गाँव को याद रखना ज़रूरी है? ऐसा क्या है गाँव में, जो हम को एक भूली हुई दुनिया में बसने देता है, बात करने के लिए एक टॉपिक देता है, कुछ करने के लिए भावुक और आतुर करता है? जिनके गाँव होते है, उनके पास गाँव की बहुत सारी कहानियां होती है- एक या कई कुत्ते के साथ, एक गाय के साथ, एक या कई पेड़ों के साथ, कोई नदी, तालाब के साथ, कोई भोजाई के साथ, कोई दोस्त या दोस्तों के साथ, कोई मेले की, कोई स्कूल और उसके मास्टर की, किसी पकवान की, कई त्योहारों की, गर्मी की, सर्दी की, बारिश की, पहले प्यार की, ऐसे ही कितनी कहानियां... वो कहानियां, जो उसके बचपन को सुखद, जवानी को गरम करती होगी। कई लोग वो सब यादों को किताबों में लिख कर प्रसिद्ध भी हो गए। साहित्य में कई तरह के 'वाद' भी स्थापित हो गए। फिर गाँधी ने तो कह ही दिया की गाँव का सर्वनाश ही देश का सर्वनाश है। इसलिए गाँव को जीवित रखना और उसकी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने की ताकीद भी दी। ने...

मेहबूब या मेहबूबा

कोई शहर पुरुष होता है या स्त्री? किसी शहर के बारे में ऐसा ख्याल क्यों आता है?अपने सुकून के लिए उसके साथ कोई भी रिश्ता बनाने की ज़रूरत क्या है? सर, पुर, नगर, आबाद, इत्यादि क्रियाविशेषण लगा कर हमने अमृतसर, नागपुर, कानपुर, अहमदनगर, हैदराबाद, नाम लिख डाले शहरों के। हर शहर अपने आप फलता फूलता और तबाह हो जाता। उसकी जगह पर या १५-२० किलोमीटर दूर कोई और शहर बस जाता। क्योंकि उसमे धन कमाने का और समृद्ध होने की क्षमता है, उसे तो पुल्लिंग ही होना था। भाषा  और जेंडर की पॉलिटिक्स का असर हो शायद। क्या फ़र्क पड़ता था? आज बंबई के जेंडर पर विचार कर रही हूं। एक और जगह पर मैंने बंबई को तुम कहा है, एक मर्द, एक पुरुष समझकर। बंबई से तो मेरा प्रेमियों वाला रिश्ता ही है। जब मैं उसकी सड़कों पर चलती थी, बहुत अरमान लिए, तब बंबई मुझे सहेली जैसा तो नहीं लगा। हाँ, एक मज़बूत  सहारा जैसा तो महसूस होता था। शायद इसलिए कि मुझे उस पर चलती हुई कार, बस, ट्रेन, काफी भारी और जटिल दिखती थी। शायद वो एक लम्बी रोड़ की तरह सीधा सा था। शायद वो हमेशा मेरे लिए मौजूद रहता। या उसका शांत समंदर अपनी आहोश में लेकर मुझे भी शांत...

पसंद नापसंद

आज फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ी। पाब्लो नेरुदा के बारे में। पता चला की उसने एक लड़की का रेप किया था। लिखने वाला/ वाली ने कहा अब मैं उसकी कविता कभी नहीं पढ़ाऊंगा/ पढ़ाऊंगी। अगर करना ही पड़ा तो ये बात भी बताउंगी। फिर लोगों ने और ऐसे कलाकारों के नाम लिए जिन्होंने ये कुकर्म किया है। साथ ही ये बहस भी शुरू हुई की इसमें कला (कविता, पेंटिंग) इत्यादि का क्या दोष है? कला को तो अप्प्रेसिअट करना चाहिए। हां, ये बात भी कही गयी की कलाकार की ये बात भी बतानी चाहिए। हमारे टीचर तो हमें बताते थे ये सारी बातें। पहली बात जो ज़हन में आयी, की तुम सभी का कभी शोषण नहीं हुआ। जब तुम को ये बात नहीं पता चल रही है की, जो भी दुराचारी होता है, उसे प्रताड़ित व्यक्ति कभी भी पसंद करेगा/ करेगी। ज़्यादातर तो वो नफ़रत की ही भावना रहती है। उसकी क्या सोच है, सिर्फ वही मायने रखती है। उसके मन पर क्या बीती होगी, कितना समय लग होगा उससे उबरने के लिए, ये सब मायने रखता है। तुम्हारे कुछ भी सोचने से उसे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। हां, हम सब मोरलिस्टिक स्टैंड ज़रूर ले सकते है। इसका हक़ सबको है। लेकिन उससे तुम हासिल क्या करोगे? तुमको क्या मिलेगा? उसे तो क...

महानगर की कला

मैं एक लड़की हूँ।  मैं कहीं भी रह सकती हूँ। सड़क, गली, मोहल्ला, पेड़ों के बीच, गाय- बैलों के साथ, मैं कहीं भी हो सकती हू।  तुमने मुझे बहुत बार देखा है, कहाँ देखा लेकिन, ये तो तुम मुझे बताओगे।  तुमने मुझे पहली बार कहाँ देखा था, बताओ ना। उस दिन कैसी हवाएँ चल रही थी, सूरज की रौशनी किस तरफ थी, तुमने कौनसी शर्ट पहनी थी, मैंने क्या पहना था, कौनसे झुमके, कौनसी रंग की चूड़ियाँ, क्या तुम्हे याद है? इस बार हम लोग नहीं मिल पाए। तुम्हारा जन्मदिन था, मैं केक ले आयी थी, एक दुसरे शहर की सबसे पुरानी बेकरी से प्लम केक। मुझे केक दे कर नीचे से ही लौटना पड़ा था।  ये कैसा समय आया है हमारे बीच? ये हमें पुराने जैसा नहीं रहने दे रहा। हम पहले जैसे मिल नहीं पाते है, आँखों में आँखें डाल कर हँस पड़ते थे, एक ही प्लेट में हर घंटे खाना खा लेते थे, खेल खेलते रहते थे। जितनी बार इस शहर में आयी हूँ, तुमसे हर बार मिली हूँ । अब सब कुछ बदला हैं।  तुम नहीं बदले हो, मैं नहीं बदली हूँ, लेकिन सब कुछ बदला तो हैं। ये शहर उस रात को इतना खाली था कि क्या बताऊ ? रात को तो शहर खाली हो ही जाता है, ना! नहीं, एक म...

बम्बई की लड़की

कई बार लिखा है की मुझे तुमसे नफरत है। जो मुझे जानते है, पहचानते है, वो मेरे बारे में ये भी जानते है की मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती। तुम मेरी नस नस में समाये हुए हो, लेकिन मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती। जब भीड़ का सामना करती हु, तब विरार लोकल में चढ़ने वाले क्षण ही याद आते है और मैं भीड़ से लड़ कर पार कर जाती हूँ। दौड़ते भागते हुए इस भीड़ भाड़ वाले शहर में भी कई बार सर उठा कर किसी की तरफ मुस्कुरा लो, ये भी तुमने सिखाया। पता नहीं तुमने सिखाया है या नहीं, या हमारी फितरत के अनुसार इतनी भीड़ में इंसान होना सिर्फ मुस्कराने से ही महसूस कर सकते थे। लेकिन तुमने इंसान बनाये रखा। वही इंसानियत तब खत्म हो जाती जब कोई पटरी पर लोकल ट्रैन से कट कर कोई मर जाता और ट्रैन को रुकना पड़ता, तब हमने ही कहा, "इसी ट्रैन के आगे मरना था उसे।" तुमने ही सिखाया था की जान है तो जहाँ है। इसलिए ट्रैन में लटकते हुए कोई पॉकेटमार ज़ेब काट रहा होता,और पता रहता कि ज़ेब कट रही है, लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते है, थोड़ा भी हिल गए तो ट्रैन से गिर जायेंगे और मर जाएंगे और बाकी लोग लेट हो जायेंगे। इससे अच्छा है कि ज़ेब कट जाए। पैस...

एक चित्र

एक दिन फेसबुक चैट पर उसने कहा, "हाई"। मैंने भी जवाब दिया।फिर बातें करने लगे। लगता हैं, शायद उस दिन उसके पास मेरे लिए समय था। कई साल पहले वो कही दिख भी जाता तो रोंगटे खड़े हो जाते थे। अब ऐसा नहीं होता। बस पता रहता हैं की वो ज़िंदा हैं। कहीं मशरूफ हैं अपनी ज़िन्दगी में। उसने कहा, "मैं बम्बई छोड़ कर जा रहा हूँ। मैंने पुछा, "क्यों?" "मुझे नफरत हैं इस शहर से। मुझे नफरत हैं इस कॉलोनी से।" मैंने देखा, मेरे आँख से आंसू निकल रहे हैं। ये क्या हो रहा था, क्यों हो रहा था? मैं बम्बई में नहीं रहती। मुझे भी वो शहर नहीं पसंद। मुझे इस शहर ने बड़े ज़ख्म दिए हैं। बार बार यही एहसास दिलाया की मैं कुछ नहीं हूँ। आज तक यही एहसास में जीती हूँ। मानो कोई पत्थर सा बैठा हैं, जो कुछ बनने नहीं देता। लेकिन बम्बई ने उसे तो सब कुछ दिया था। पैसा, रुतबा, शोहरत, प्यार, बीवी, बच्चा, घर। बम्बई से नफरत क्यों? और मेरी आँखों में आंसू क्यों? १६ साल की उम्र में पहली बार कोई अच्छा लगा था। वो यही था। कितना अलग किस्म का प्यार था वो। मुझे लगता की वो सलमान खान जैसा दिखता हैं। उस समय सलमान क...

प्यार और करियर: एक विरोधाभास

क्या सच में दोनों एक दुसरे के आमने सामने लड़ाकू की तरह खड़े है और हर औरत को किसी भी समय इन दोनों में से एक को चुनना होता है? यह चुनाव ज़िन्दगी में एक या दो बार नहीं, अपितु हर शाम, हर वीकेंड, हर महीने में कुछ दिन तो करना ही पड़ता है। ओफ्फो अबला नारी। क्या दोनों में co-existence नहीं हो सकता? हाहा, शायद भारत देश में नहीं। जहाँ परंपरा ने औरत को आज तक नहीं छोड़ा है और हर मोड़ पर प्यार को सेवा, इज़्ज़त, परिवार और perfection के साथ जोड़ कर प्यार को इतना बोझिल बना देती है। परंपरा की बेड़ियाँ इतनी मज़बूत है की औरतों के पास सिर्फ दो ही response है। प्यार और करियर में से एक की क़ुरबानी।इस प्यार और करियर की dichotomy को तोड़ने के लिए- या तो परंपरा की बेड़ियाँ अपने पैरों में और कसवा लो, या फिर करियर को इतना तवज्जो दो, की प्यार सेकेंडरी ही रहेगा। इन दोनों extremes के बीच के responses अक्सर रिकॉर्ड नहीं होते। या ये भी होता होगा की balanced life एक myth है, या जो लोग कहते है की वें दोनों को बैलेंस करते है, मेरे हिसाब से वें लोग mediocre केटेगरी में ब्रांडेड होने के खतरे से गुज़रते है। इसके पहले की इस प...

बीस साल बाद

एक दिन मैंने बहुत ही गुरूर में कहा , " तुम्हारा सबसे बेस्ट किस मेरे साथ ही होगा !" तुम चौंक गए। तुम्हे कुछ अजीब लगा। तुम ने पुछा , " तुम्हे मुझमे क्या अच्छा लगा था ?" मैंने कहा , " पहली बार जब हमारी बात हुई थी , तब भी तो बताया था तुम्हे। " तुम्हे याद हो , ऐसा कोई ज़रूरी नहीं। मुझे तुम में ऐसा क्या अच्छा लगता है? मुझे तुम से प्यार क्यों है ? तुम्हारी आवाज़ से , तुम्हारे विचारों से , तुम्हारे गानों से , तुम्हारे नीले शर्ट से , तुम्हारे देशप्रेम से , मुझसे नज़र ना मिलाने से , तुम्हारे सिंहासन नुमा सोफे पर बैठने के अंदाज़ से। इन सबसे , इनमे कुछ भी कम होता तो ... इन सब में से तो कुछ काम हो ही नहीं सकता। सब एक दुसरे से जुड़े हुए है। या ये कहूँ कि सब एक दुसरे से ही निकलते है। जब मैंने तुम से कहा की सबसे बढ़िया किस मेरे साथ ही होगा , मेरा दिल ही जानता है की मैंने कितनी हिम्मत उठायी थी। पर इसमें ऐसी हिम्मत की कौनसी बात थी ? हिम्मत मुझ...