मेहबूब या मेहबूबा

कोई शहर पुरुष होता है या स्त्री? किसी शहर के बारे में ऐसा ख्याल क्यों आता है?अपने सुकून के लिए उसके साथ कोई भी रिश्ता बनाने की ज़रूरत क्या है?

सर, पुर, नगर, आबाद, इत्यादि क्रियाविशेषण लगा कर हमने अमृतसर, नागपुर, कानपुर, अहमदनगर, हैदराबाद, नाम लिख डाले शहरों के। हर शहर अपने आप फलता फूलता और तबाह हो जाता। उसकी जगह पर या १५-२० किलोमीटर दूर कोई और शहर बस जाता। क्योंकि उसमे धन कमाने का और समृद्ध होने की क्षमता है, उसे तो पुल्लिंग ही होना था। भाषा  और जेंडर की पॉलिटिक्स का असर हो शायद। क्या फ़र्क पड़ता था?

आज बंबई के जेंडर पर विचार कर रही हूं। एक और जगह पर मैंने बंबई को तुम कहा है, एक मर्द, एक पुरुष समझकर। बंबई से तो मेरा प्रेमियों वाला रिश्ता ही है। जब मैं उसकी सड़कों पर चलती थी, बहुत अरमान लिए, तब बंबई मुझे सहेली जैसा तो नहीं लगा। हाँ, एक मज़बूत  सहारा जैसा तो महसूस होता था। शायद इसलिए कि मुझे उस पर चलती हुई कार, बस, ट्रेन, काफी भारी और जटिल दिखती थी। शायद वो एक लम्बी रोड़ की तरह सीधा सा था। शायद वो हमेशा मेरे लिए मौजूद रहता। या उसका शांत समंदर अपनी आहोश में लेकर मुझे भी शांत कर देता। शायद उसमें वो सब था, जो मुझे एक मर्द में चाहिए था।  मेरी सहेलियों में तो ये गुण नहीं दिखे थे मुझे।

कईयों ने बंबई में अपनी माशूका को देखा है, चाहे वो वैश्या हो, कोमल नाज़ुक जवां लड़की या अधेड़ उम्र बीवी। शायद उनको भी अपनी कमियां ढांकने का, हिम्मत बंधाने का और ताकत आजमाने का निर्धारण बंबई शहर को औरत बनाने से ही मिलता हो।

बहुत ही हंसी आती है, अपने पर और इस मनुष्य जात पर। जैसे भगवान को बना दिया, वैसे ही शहर को भी बना दिया। लेकिन शहर तो इंसान ने खुद अपने हाथ से बनाए है। प्रकृति जैसे रहस्य तो नहीं है उसमे। बहुत सीधा हिसाब है। रोजगार और रहने खाने का मामूली रिश्ता ही तो है। कितने लोग तो ऐसे भी है, जिनका शहर से नहीं, वरन् सिर्फ अपने रोजगार से ही मतलब होता है। दुकान या ऑफिस और घर, इस रूटीन के बाहर उनकी ज़िंदगी कुछ नहीं होती। ये लोग शहर को क्या मानते होंगे - पुल्लिंग, स्त्रीलिंग या नपुंसक लिंग?

क्या रिश्ता सिर्फ लिंगों के आधार पर बनता है? क्या रिश्ता बनाना ज़रूरी है? क्या बेनामी हो सकता है रिश्ता एक शहर और रहवासी का? जो रिश्ते नहीं बनाते, क्या वो इंसान नहीं होते?

 विद्या सिन्हा बसु चटर्जी के निर्देशन में कई फिल्मों में बंबई के सड़कों पर चलते हुए अपनी लव लाइफ के बारे में सोचती है या लवर के इंतज़ार करती है। कितनी आसानी से वो बंबई की सड़कों पर अपनी दुनिया में खो जाती है! बंबई कितनी सहज हो जाती है ना तब? जब अरविन्द देसाई सईद मिर्ज़ा की फिल्म में कार से बंबई दिखाता है, तो कितनी सामने लगती है बंबई! सलीम लंगड़े की बंबई अलग, राजाराम (कथा) की बंबई अलग, विजय (अग्निपथ) की बंबई अलग, लेकिन वो आखिर में बंबई की ही कहानियां थी। बंबई ही उसमे हीरो, हीरोइन, विलन, डांसर, सब कुछ था। कितना सारा बंबई, कितनी सारी बंबई, कितने सारे बंबई।

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