लिखना
आज समझ नहीं आता कि क्या लिखूं। ऐसा हर क्षण महसूस करती हूं। ख्याल तो आते रहते हैं। कुछ ख्याल नये होते हैं, कुछ सालों से आते ही जा रहे हैं। जब ख्याल नये नये आते है, तो लगता है कि मैं जी रही हूं। सांस ले रही हूं। मेरा जीना सार्थक हुआ है, कम से कम आज के दिन तो सही। जिस दिन कोई नया ख्याल नहीं आता, उस दिन तो माता रूपी आवाज़ अंदर से आने लगती है, तेरा जीना तो बहुत ही विफल रहा है। मां बचपन में कहती थी कि कुछ तो बड़ा काम करना चाहिए। उसके बड़े काम के क्या मायने है, ये तो पता नहीं। लेकिन उस ' बड़े काम ' की लालसा में जीती रहती हूं। प्रेशर में तो नहीं जीती हूं, लेकिन वो चीज कचोटती तो खूब ही है।
एक और चीज़ मां के बारे में लगती है मुझे। मां से मुझे परफेक्शन भी शायद मिला था। वो परफेक्शन को में कहां छोड़ अायी, या पकड़ रखा है, इसका कोई पता जवाब नहीं है।
कहते है कि जिनका सन साइन स्कॉर्पियो होता है, वो परफेक्शनिस्ट होते है। मेरे अंदर कहां से आता हैं, ये तो ज़रा भी पता नहीं है, सिर्फ इतना पता है, कि ज़िन्दगी को ज़्यादा फ़ायदा हुआ नहीं उससे। वहीं मोड़ पर है जहां सब है। लेकिन फिर याद आता है कि मैंने उनकी तरह ज़िन्दगी शुरू नहीं की थी। ना ही उनकी तरह जीयी थी। फ़िर याद आता है, मोड़ भी तो क्या है? सब कुछ एक ही तो है। खाना, पीना, सोना, हंसना, लिखना, सोचना, सब लोग सब कुछ ही तो करते है। फ़िर मैं कैसे ज़िंदा रहती हूं, कैसे सांस लेती हूं? अगर मैं और वो और हम सब अलग है, तो हमारी ज़िन्दगी एक सी क्यों लगती है? नीला नीला क्यों लगता है, और पीला, पीला? आसमां जैसा उन्हें दिखता है, वैसा मुझे भी। कैसे फर्क करूं मुझमें और उन सब में? करूं या ना करूं? अगर नहीं करना चाहिए तो मन में ख्याल क्यों आया? अलग सोचने के चक्कर में क्या यहां पहुंचना था मुझे?
आसमां की ओर देखना मुझे बहुत भाने लगा है आजकल। बादल दिखते हैं कभी, कभी सफेदी, कभी नीलापन। कभी सफेदी के तकरीबन ४-५ क़िस्म - जो कभी घनत्व के हिसाब से आंके जा सकते है, तो कभी रंगों के उतार चढ़ाव से। कभी मोटे बादलों को तोड़ते हुए पतले बादल, कभी दो मोटे बादल को जोड़ते हुए पतले बादल की एक चादर, कभी एक पुल बनाते हुए बादल, कभी मोटे बादल का एक सिंहासन या एक सीढ़ी या एक तालाब। कई बार तो दो मोटे बादलों की कई किलोमीटर की चादर के बीच सूरज नदी का भ्रम पैदा कर देता है। कभी तो ये मोटे बादल और भी मोटे और घने हो जाते है। कभी लगा नहीं था कि सफेदी भी डराएगी, लेकिन डर तो लग ही जाता है। अब उन घने बादलों से बहुत दूर छनती हुई सूरज की शाम की रोशनी - बस, ऐसा लगता है घने बादलों के पाताल लोक में रस्सियां फेकी गई है, और हमें बस यही मौका मिला है अपने आप को बचाने का। हिम्मत करो, और हिम्मत, और थोड़ी हिम्मत, हम निकल आएंगे। बादलों के इस खेल में अपना राजमहल भी दिखता है, रम्य, कोमल, और सुरेख। ऐसे ही हर क्षण एक नया चित्र, एक नई कहानी, एक नया पात्र, या फ़िर वही पुराना चित्र, वहीं पुरानी कहानी, और वही पुराने पात्र। सब कुछ रोज़ यही है। मैं भी तो वही हूं जिसे आज समझ नहीं आया कि क्या लिखूं। या कौनसी कहानी फ़िर से लिखू।
“I’m obsessed with past lovers; treating my memories of them as resources for my soul’s sustenance, anxiously searching for self worth by siphoning what ever is remaining and putting it back inside of me like a tainted blood transfusion, remembering me, the person that was willing to give up everything and ended up with less and less each time. I feel like growing up is just the process of losing pieces of yourself…”
~ Lucas Regazzi
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