एक चित्र
एक दिन फेसबुक चैट पर उसने कहा, "हाई"। मैंने भी जवाब दिया।फिर बातें करने लगे। लगता हैं, शायद उस दिन उसके पास मेरे लिए समय था। कई साल पहले वो कही दिख भी जाता तो रोंगटे खड़े हो जाते थे। अब ऐसा नहीं होता। बस पता रहता हैं की वो ज़िंदा हैं। कहीं मशरूफ हैं अपनी ज़िन्दगी में।
उसने कहा, "मैं बम्बई छोड़ कर जा रहा हूँ।
मैंने पुछा, "क्यों?"
"मुझे नफरत हैं इस शहर से। मुझे नफरत हैं इस कॉलोनी से।"
मैंने देखा, मेरे आँख से आंसू निकल रहे हैं। ये क्या हो रहा था, क्यों हो रहा था?
मैं बम्बई में नहीं रहती। मुझे भी वो शहर नहीं पसंद। मुझे इस शहर ने बड़े ज़ख्म दिए हैं। बार बार यही एहसास दिलाया की मैं कुछ नहीं हूँ। आज तक यही एहसास में जीती हूँ। मानो कोई पत्थर सा बैठा हैं, जो कुछ बनने नहीं देता।
लेकिन बम्बई ने उसे तो सब कुछ दिया था। पैसा, रुतबा, शोहरत, प्यार, बीवी, बच्चा, घर। बम्बई से नफरत क्यों? और मेरी आँखों में आंसू क्यों?
१६ साल की उम्र में पहली बार कोई अच्छा लगा था। वो यही था। कितना अलग किस्म का प्यार था वो। मुझे लगता की वो सलमान खान जैसा दिखता हैं। उस समय सलमान की पहली फिल्म जो आयी थी। एक सहेली को किसी से प्यार हुआ था। मुझे लगा मुझे भी प्यार होना चाहिए। फिर सलमान अच्छा लगा। फिर जब उस पर नज़र पड़ी तो तो शायद दिमाग ने कहा, "इससे प्यार करना चाहिए"। मन ने दिमाग की सुन ली।
देखने लगी उसे। इतना देखा की माँ को पता चल गया। बिल्डिंग में सब को पता चल गया। उसकी बिल्डिंग में सबको पता चल गया, उसके परिवार को, सारी कॉलोनी को भी पता चल गया। मशहूर हो गयी थी उसकी चाहत में, बदनाम हो गयी थी उसकी चाहत में।
उसे मैं पसंद न थी। वो छुप जाता, उसने अपने आने जाने का समय भी बदल लिया। और मैं पगली, उसके घर की तरफ देखा करती, उसकी बिल्डिंग की तरफ देखा करती।
वो ४० घरों की बिल्डिंग, चार माले की बिल्डिंग। हर घर का अपना एक रंग, किसी घर के बाहर तुलसी का पौधा, किसी घर के बाहर साइकिल, किसी खिड़की पर ए सी, किसी पर लोहे की जाली, हर घर के बाहर सूखते कपड़ें, बताते हुए कि कल कैसा गुज़रा। ग्राउंड फ्लोर पर बहुत सारे पौधों वाला घर, एक झगड़ालू बुढ़िया का घर, एक पत्नी को मारने वाले पति का घर, एक बहुत सारे बच्चों का घर, एक बच्चों को हमेशा मारने वाली मम्मी का घर, एक हमेश बंद रहने वाला घर, एक वात्सल्य से भरी बाँझ औरत का घर, एक आरएसएस के पक्ष वाला घर, एक बेहद ही धार्मिक घर, एक बहुत ही पैसे वाला घर, एक हर पडोसी से झगड़ने वाला घर, एक बंद मिल के बेरोज़गार आदमी और गरीबी से जूझते हुए उसके परिवार का घर, एक दुबई रिटर्न्ड अंकल का महकता घर, एक मछली या मुर्गी पकाने वाला घर, एक उसी महक पर नाक सिकोड़ने वाला घर...
लेकिन हर घर हर त्यौहार पर एक बिल्डिंग बन जाता। सत्यनारायण की पूजा, होली का त्यौहार, सार्वजनिक गणेश महोत्सव, गरबा वाली नवरात्रि, दिवाली की जगमगाहट, सारी बिल्डिंग एक पूरी इकाई बन जाती। सब एक दूसरे से प्यार करते, पुरानी कटुता को थोड़ी देर भूल कर, दूसरी बिल्डिंग के सामने इतराते।
वो एक चित्र जो दिमाग और मन में अंकित हैं, उसमे एक दो पिक्सेल्स तो छिन्न भिन्न होते ही हैं। लेकिन उसके ये कहने में एक दो पिक्सेल नहीं, पूरा चित्र ही फट रहा था। ऐसा लगा की मेरे वजूद का एक हिस्सा कहीं डूब रहा हैं।
मैं उस खालीपन को नहीं झेल पाउंगी। सुनो, मैं दूर जा सकती हूँ इस प्यार से, इस चित्र से, इस शहर से, लेकिन तुम न जाओ इसे छोड़कर। मैं जब मायके जाउंगी तो किसे ढूंढूंगी, पुरानी यादों के नाम पर। तुम प्लीज ना ही नफरत करो इससे, ना ही छोड़ो इसे।
आज जो हम इस नफरत भरे माहौल में जी पाते हैं, उसमे उस ज़ंमाने का बहुत बड़ा हाथ हैं। आज हम इस फ़ासिस्ट माहौल के खिलाफ लड़ पाते हैं, अपनी एक अलग सोच रख पाते हैं, उसे कह पाते हैं, उसमे उस बिल्डिंग का बहुत बड़ा हाथ हैं। तुम्हारी बिल्डिंग, मेरी बिल्डिंग, उसकी बिल्डिंग। उस चित्र के सहारे ही हैं। पता नहीं प्यार किस्से हैं या था, लेकिन ऐसी खबर तो मुझे ना सुनाओ, प्लीज।
उसने कहा, "मैं बम्बई छोड़ कर जा रहा हूँ।
मैंने पुछा, "क्यों?"
"मुझे नफरत हैं इस शहर से। मुझे नफरत हैं इस कॉलोनी से।"
मैंने देखा, मेरे आँख से आंसू निकल रहे हैं। ये क्या हो रहा था, क्यों हो रहा था?
मैं बम्बई में नहीं रहती। मुझे भी वो शहर नहीं पसंद। मुझे इस शहर ने बड़े ज़ख्म दिए हैं। बार बार यही एहसास दिलाया की मैं कुछ नहीं हूँ। आज तक यही एहसास में जीती हूँ। मानो कोई पत्थर सा बैठा हैं, जो कुछ बनने नहीं देता।
लेकिन बम्बई ने उसे तो सब कुछ दिया था। पैसा, रुतबा, शोहरत, प्यार, बीवी, बच्चा, घर। बम्बई से नफरत क्यों? और मेरी आँखों में आंसू क्यों?
१६ साल की उम्र में पहली बार कोई अच्छा लगा था। वो यही था। कितना अलग किस्म का प्यार था वो। मुझे लगता की वो सलमान खान जैसा दिखता हैं। उस समय सलमान की पहली फिल्म जो आयी थी। एक सहेली को किसी से प्यार हुआ था। मुझे लगा मुझे भी प्यार होना चाहिए। फिर सलमान अच्छा लगा। फिर जब उस पर नज़र पड़ी तो तो शायद दिमाग ने कहा, "इससे प्यार करना चाहिए"। मन ने दिमाग की सुन ली।
देखने लगी उसे। इतना देखा की माँ को पता चल गया। बिल्डिंग में सब को पता चल गया। उसकी बिल्डिंग में सबको पता चल गया, उसके परिवार को, सारी कॉलोनी को भी पता चल गया। मशहूर हो गयी थी उसकी चाहत में, बदनाम हो गयी थी उसकी चाहत में।
उसे मैं पसंद न थी। वो छुप जाता, उसने अपने आने जाने का समय भी बदल लिया। और मैं पगली, उसके घर की तरफ देखा करती, उसकी बिल्डिंग की तरफ देखा करती।
वो ४० घरों की बिल्डिंग, चार माले की बिल्डिंग। हर घर का अपना एक रंग, किसी घर के बाहर तुलसी का पौधा, किसी घर के बाहर साइकिल, किसी खिड़की पर ए सी, किसी पर लोहे की जाली, हर घर के बाहर सूखते कपड़ें, बताते हुए कि कल कैसा गुज़रा। ग्राउंड फ्लोर पर बहुत सारे पौधों वाला घर, एक झगड़ालू बुढ़िया का घर, एक पत्नी को मारने वाले पति का घर, एक बहुत सारे बच्चों का घर, एक बच्चों को हमेशा मारने वाली मम्मी का घर, एक हमेश बंद रहने वाला घर, एक वात्सल्य से भरी बाँझ औरत का घर, एक आरएसएस के पक्ष वाला घर, एक बेहद ही धार्मिक घर, एक बहुत ही पैसे वाला घर, एक हर पडोसी से झगड़ने वाला घर, एक बंद मिल के बेरोज़गार आदमी और गरीबी से जूझते हुए उसके परिवार का घर, एक दुबई रिटर्न्ड अंकल का महकता घर, एक मछली या मुर्गी पकाने वाला घर, एक उसी महक पर नाक सिकोड़ने वाला घर...
लेकिन हर घर हर त्यौहार पर एक बिल्डिंग बन जाता। सत्यनारायण की पूजा, होली का त्यौहार, सार्वजनिक गणेश महोत्सव, गरबा वाली नवरात्रि, दिवाली की जगमगाहट, सारी बिल्डिंग एक पूरी इकाई बन जाती। सब एक दूसरे से प्यार करते, पुरानी कटुता को थोड़ी देर भूल कर, दूसरी बिल्डिंग के सामने इतराते।
वो एक चित्र जो दिमाग और मन में अंकित हैं, उसमे एक दो पिक्सेल्स तो छिन्न भिन्न होते ही हैं। लेकिन उसके ये कहने में एक दो पिक्सेल नहीं, पूरा चित्र ही फट रहा था। ऐसा लगा की मेरे वजूद का एक हिस्सा कहीं डूब रहा हैं।
मैं उस खालीपन को नहीं झेल पाउंगी। सुनो, मैं दूर जा सकती हूँ इस प्यार से, इस चित्र से, इस शहर से, लेकिन तुम न जाओ इसे छोड़कर। मैं जब मायके जाउंगी तो किसे ढूंढूंगी, पुरानी यादों के नाम पर। तुम प्लीज ना ही नफरत करो इससे, ना ही छोड़ो इसे।
आज जो हम इस नफरत भरे माहौल में जी पाते हैं, उसमे उस ज़ंमाने का बहुत बड़ा हाथ हैं। आज हम इस फ़ासिस्ट माहौल के खिलाफ लड़ पाते हैं, अपनी एक अलग सोच रख पाते हैं, उसे कह पाते हैं, उसमे उस बिल्डिंग का बहुत बड़ा हाथ हैं। तुम्हारी बिल्डिंग, मेरी बिल्डिंग, उसकी बिल्डिंग। उस चित्र के सहारे ही हैं। पता नहीं प्यार किस्से हैं या था, लेकिन ऐसी खबर तो मुझे ना सुनाओ, प्लीज।
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