महानगर की कला
मैं एक लड़की हूँ। मैं कहीं भी रह सकती हूँ। सड़क, गली, मोहल्ला, पेड़ों के बीच, गाय- बैलों के साथ, मैं कहीं भी हो सकती हू। तुमने मुझे बहुत बार देखा है, कहाँ देखा लेकिन, ये तो तुम मुझे बताओगे। तुमने मुझे पहली बार कहाँ देखा था, बताओ ना। उस दिन कैसी हवाएँ चल रही थी, सूरज की रौशनी किस तरफ थी, तुमने कौनसी शर्ट पहनी थी, मैंने क्या पहना था, कौनसे झुमके, कौनसी रंग की चूड़ियाँ, क्या तुम्हे याद है?
इस बार हम लोग नहीं मिल पाए। तुम्हारा जन्मदिन था, मैं केक ले आयी थी, एक दुसरे शहर की सबसे पुरानी बेकरी से प्लम केक। मुझे केक दे कर नीचे से ही लौटना पड़ा था। ये कैसा समय आया है हमारे बीच? ये हमें पुराने जैसा नहीं रहने दे रहा। हम पहले जैसे मिल नहीं पाते है, आँखों में आँखें डाल कर हँस पड़ते थे, एक ही प्लेट में हर घंटे खाना खा लेते थे, खेल खेलते रहते थे।
जितनी बार इस शहर में आयी हूँ, तुमसे हर बार मिली हूँ । अब सब कुछ बदला हैं। तुम नहीं बदले हो, मैं नहीं बदली हूँ, लेकिन सब कुछ बदला तो हैं। ये शहर उस रात को इतना खाली था कि क्या बताऊ ? रात को तो शहर खाली हो ही जाता है, ना! नहीं, एक महानगर में तो ये पॉसिबल ही नहीं नहीं ह। महानगर का तो मतलब ही ये है, २४ घंटे ही चालू रहता है, समय के चक्के के साथ। एयरपोर्ट से घर तक का वो रास्ता, एक डोर सा बांधता है। मेरे लिए तो पुरानी यादों का समुद्र अँधेरी के फ्लाईओवर, मलाड का वो बस स्टॉप को देख उमड़ता है। कितनी यादें लिखे, कितनी यादें सोचे! सड़क पर कार दौड़ती हुई कितनी जल्दी अपने गंतव्य पर पहुंच गयी। थोड़ा दुःख हुआ, कि शहर की यादों को जिया ही नही। इतनी फ़ास्ट दौड़ी कार।
लेकिन सूनी सूनी सड़कें देख कर रोई मै। एक आंसू तो निकला ही। हाय, क्या हो गया मेरे शहर को। कौन डायन खा गयी तुझे । ऐसे बे सिर पैर की बातें तुरंत मन में आयी और आँसू के रूप में बहार निकल आयी। जब सड़कें आबाद थी, तब अलग ही रोना था। भीड़, प्रदुषण, mismanagement, सरकार, सभी में कमी ढूंढ कर महानगर को सुधारने के ख्याल मन में आते थे। फिर पता चलता कि मुझे तो कोई हिम्मत नहीं है, इस महानगर के लिए कुछ नहीं कर पाऊँगी। फिर मैं उन मज़ेदार पलों को सोचने लगती, जो महानगर को इंसान नुमा बना देती है। 'जाने भी दो यारों' में नसीरुद्दीन शाह को, 'मंज़िल' में अमिताभ को, 'राजू बन गया जेंटलमैन' में शाहरुख़ के फ्रेम्स सामने आ जाते है।
हर बार महानगर में आती हूँ, यही ख्याल, इसी सिलसिले से, बिना कोई जोड़ तोड़ के, आते है। बोर हो गयी थी इन चीज़ों से। पर जब पढ़ा कि लोग छोड़ कर जा रहे है, तो मन किया, मशाल के दिलीप कुमार की तरह सड़क पर जा कर उन्हें रोक लूँ, उन्हें मना लूँ, कि ये महानगर इतना निर्दयी, इतना क्रूर नहीं है। मन किया कि उन्हें धाडस बँधाऊँ कि यहाँ हर बंदा भूखा उठता है, लेकिन भुखा सोता नहीं है। फिर याद आया कि कैसे ये होगा, जब लोकल ट्रैन ही बंद है, ऑफिस बंद है, सड़क पर ऑटो या कार रोक कर किराया देकर एक जगह से दूसरे जगह चले जाने वाले लोग ही नहीं है। खाना कुछ को मिला है, बहुतों को नहीं मिला है, किसी ने खाने को ही अपना व्यवसाय बना लिया है। मतलब शहर भी छूट रहा है, लोग भी छूट रहे है, ज़िन्दगी छूट रही है। इतना खाली तो प्यार का विश्वास टूटने पर भी महसूस किया होगा। हे महानगर, तुम पहले जैसे हो जाओ , प्लीज हमारी खातिर।
खैर अपनी बात करते है। तुम तुम्हारे घर हो, मैं मेरे घर। अब हम एक नए किस्म का जीना सीख रहे है। ये जीना अलग है, पहले के जीने से। लोग कहते है जीने के ढंग से ज़िन्दगी बहुत दिलचस्प हो सकती है। आज उसी ढंग, उसी कला की ज़रुरत है। जब हम इस ज़िन्दगी को अलग नज़रिये से देखेंगे, नए ढंग से चलाएंगे, कुछ अलग करेंगे, कुछ नया करेंगे, तब हम कला का निर्माण करेंगे । वैसे भी कला है क्या? ज़िन्दगी जीने का एक और तरीक़ा। हमारी ज़िंदगियाँ तो बदली है, और उन बदले हुए हालातों से नयी ज़िन्दगी बनाएंगे तो हम कलाकार बनेंगे। और हमारी ज़िन्दगी हमारी कला का कैनवास, या स्टेज, या कैमरा, बन जाएगी। ये नायाब तरीका, हम को आगे बढ़ाएगा हम हंसना सिखाएगा, मुस्कुराना सिखाएगा, गाना गाना सिखाएगा, नए व्यंजन बनवाएगा, नए कम्युनिकेशन चैनल्स सिखाएगा, नए दोस्त बनवाएगा- फर्श पर रेंगती हुई चींटी, पेड़ पर नए पंछी या गिलहरी, या नीचे वो कुत्ता, और वो बिल्ली भी। इस महानगर में बहुत दोस्त बनाने बाकी है, नए रिश्ते बनाने बाकी है, इन सड़कों पर फिर से चलना बाकी है, लोकल ट्रैन से सफर करना बाकी है, वो जो अधूरी सी बात बाकी है, अधूरी सी याद बाकी है, उनमे और याद जोड़नी बाकी है, एक नयी कला का सृजन करना बाकी है। इस महानगर को अपने प्यार से फिर सींचना है, पालना है। इस बार थोड़ा प्यार एक दूसरे को ज़्यादा बांटने का निश्चय करना है, थोड़ी और हमदर्दी भरा महानगर बनाना है। इस निश्चय को लेकर ही सपना देखना है। ये सपना ले कर आज की रात को खत्म करते है। अभी सो जाते है, नए सपने देखने है। कल उठना है। कल उठ कर काम करना है। कल उठ कर एक नयी कला का आग़ाज़ करना है।
इस बार हम लोग नहीं मिल पाए। तुम्हारा जन्मदिन था, मैं केक ले आयी थी, एक दुसरे शहर की सबसे पुरानी बेकरी से प्लम केक। मुझे केक दे कर नीचे से ही लौटना पड़ा था। ये कैसा समय आया है हमारे बीच? ये हमें पुराने जैसा नहीं रहने दे रहा। हम पहले जैसे मिल नहीं पाते है, आँखों में आँखें डाल कर हँस पड़ते थे, एक ही प्लेट में हर घंटे खाना खा लेते थे, खेल खेलते रहते थे।
जितनी बार इस शहर में आयी हूँ, तुमसे हर बार मिली हूँ । अब सब कुछ बदला हैं। तुम नहीं बदले हो, मैं नहीं बदली हूँ, लेकिन सब कुछ बदला तो हैं। ये शहर उस रात को इतना खाली था कि क्या बताऊ ? रात को तो शहर खाली हो ही जाता है, ना! नहीं, एक महानगर में तो ये पॉसिबल ही नहीं नहीं ह। महानगर का तो मतलब ही ये है, २४ घंटे ही चालू रहता है, समय के चक्के के साथ। एयरपोर्ट से घर तक का वो रास्ता, एक डोर सा बांधता है। मेरे लिए तो पुरानी यादों का समुद्र अँधेरी के फ्लाईओवर, मलाड का वो बस स्टॉप को देख उमड़ता है। कितनी यादें लिखे, कितनी यादें सोचे! सड़क पर कार दौड़ती हुई कितनी जल्दी अपने गंतव्य पर पहुंच गयी। थोड़ा दुःख हुआ, कि शहर की यादों को जिया ही नही। इतनी फ़ास्ट दौड़ी कार।
लेकिन सूनी सूनी सड़कें देख कर रोई मै। एक आंसू तो निकला ही। हाय, क्या हो गया मेरे शहर को। कौन डायन खा गयी तुझे । ऐसे बे सिर पैर की बातें तुरंत मन में आयी और आँसू के रूप में बहार निकल आयी। जब सड़कें आबाद थी, तब अलग ही रोना था। भीड़, प्रदुषण, mismanagement, सरकार, सभी में कमी ढूंढ कर महानगर को सुधारने के ख्याल मन में आते थे। फिर पता चलता कि मुझे तो कोई हिम्मत नहीं है, इस महानगर के लिए कुछ नहीं कर पाऊँगी। फिर मैं उन मज़ेदार पलों को सोचने लगती, जो महानगर को इंसान नुमा बना देती है। 'जाने भी दो यारों' में नसीरुद्दीन शाह को, 'मंज़िल' में अमिताभ को, 'राजू बन गया जेंटलमैन' में शाहरुख़ के फ्रेम्स सामने आ जाते है।
हर बार महानगर में आती हूँ, यही ख्याल, इसी सिलसिले से, बिना कोई जोड़ तोड़ के, आते है। बोर हो गयी थी इन चीज़ों से। पर जब पढ़ा कि लोग छोड़ कर जा रहे है, तो मन किया, मशाल के दिलीप कुमार की तरह सड़क पर जा कर उन्हें रोक लूँ, उन्हें मना लूँ, कि ये महानगर इतना निर्दयी, इतना क्रूर नहीं है। मन किया कि उन्हें धाडस बँधाऊँ कि यहाँ हर बंदा भूखा उठता है, लेकिन भुखा सोता नहीं है। फिर याद आया कि कैसे ये होगा, जब लोकल ट्रैन ही बंद है, ऑफिस बंद है, सड़क पर ऑटो या कार रोक कर किराया देकर एक जगह से दूसरे जगह चले जाने वाले लोग ही नहीं है। खाना कुछ को मिला है, बहुतों को नहीं मिला है, किसी ने खाने को ही अपना व्यवसाय बना लिया है। मतलब शहर भी छूट रहा है, लोग भी छूट रहे है, ज़िन्दगी छूट रही है। इतना खाली तो प्यार का विश्वास टूटने पर भी महसूस किया होगा। हे महानगर, तुम पहले जैसे हो जाओ , प्लीज हमारी खातिर।
खैर अपनी बात करते है। तुम तुम्हारे घर हो, मैं मेरे घर। अब हम एक नए किस्म का जीना सीख रहे है। ये जीना अलग है, पहले के जीने से। लोग कहते है जीने के ढंग से ज़िन्दगी बहुत दिलचस्प हो सकती है। आज उसी ढंग, उसी कला की ज़रुरत है। जब हम इस ज़िन्दगी को अलग नज़रिये से देखेंगे, नए ढंग से चलाएंगे, कुछ अलग करेंगे, कुछ नया करेंगे, तब हम कला का निर्माण करेंगे । वैसे भी कला है क्या? ज़िन्दगी जीने का एक और तरीक़ा। हमारी ज़िंदगियाँ तो बदली है, और उन बदले हुए हालातों से नयी ज़िन्दगी बनाएंगे तो हम कलाकार बनेंगे। और हमारी ज़िन्दगी हमारी कला का कैनवास, या स्टेज, या कैमरा, बन जाएगी। ये नायाब तरीका, हम को आगे बढ़ाएगा हम हंसना सिखाएगा, मुस्कुराना सिखाएगा, गाना गाना सिखाएगा, नए व्यंजन बनवाएगा, नए कम्युनिकेशन चैनल्स सिखाएगा, नए दोस्त बनवाएगा- फर्श पर रेंगती हुई चींटी, पेड़ पर नए पंछी या गिलहरी, या नीचे वो कुत्ता, और वो बिल्ली भी। इस महानगर में बहुत दोस्त बनाने बाकी है, नए रिश्ते बनाने बाकी है, इन सड़कों पर फिर से चलना बाकी है, लोकल ट्रैन से सफर करना बाकी है, वो जो अधूरी सी बात बाकी है, अधूरी सी याद बाकी है, उनमे और याद जोड़नी बाकी है, एक नयी कला का सृजन करना बाकी है। इस महानगर को अपने प्यार से फिर सींचना है, पालना है। इस बार थोड़ा प्यार एक दूसरे को ज़्यादा बांटने का निश्चय करना है, थोड़ी और हमदर्दी भरा महानगर बनाना है। इस निश्चय को लेकर ही सपना देखना है। ये सपना ले कर आज की रात को खत्म करते है। अभी सो जाते है, नए सपने देखने है। कल उठना है। कल उठ कर काम करना है। कल उठ कर एक नयी कला का आग़ाज़ करना है।
Comments
Post a Comment