गाँव निर्दयी है!
हमारे देश में गाँवों पर कई बातें हुई है,और होती रहेगी। गाँव का महत्त्व जाने क्यों भारत देश में ही बार बार दोहराया जाता है। क्यों गाँव को भूला नहीं जा सकता? क्यों गाँव को याद रखना ज़रूरी है? ऐसा क्या है गाँव में, जो हम को एक भूली हुई दुनिया में बसने देता है, बात करने के लिए एक टॉपिक देता है, कुछ करने के लिए भावुक और आतुर करता है?
जिनके गाँव होते है, उनके पास गाँव की बहुत सारी कहानियां होती है- एक या कई कुत्ते के साथ, एक गाय के साथ, एक या कई पेड़ों के साथ, कोई नदी, तालाब के साथ, कोई भोजाई के साथ, कोई दोस्त या दोस्तों के साथ, कोई मेले की, कोई स्कूल और उसके मास्टर की, किसी पकवान की, कई त्योहारों की, गर्मी की, सर्दी की, बारिश की, पहले प्यार की, ऐसे ही कितनी कहानियां... वो कहानियां, जो उसके बचपन को सुखद, जवानी को गरम करती होगी। कई लोग वो सब यादों को किताबों में लिख कर प्रसिद्ध भी हो गए। साहित्य में कई तरह के 'वाद' भी स्थापित हो गए।
फिर गाँधी ने तो कह ही दिया की गाँव का सर्वनाश ही देश का सर्वनाश है। इसलिए गाँव को जीवित रखना और उसकी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने की ताकीद भी दी। नेहरू ने देश को औद्योगीकरण के साथ गाँव को संवारने के लिए कई कदम उठाये। हाथ के काम को भी उतनी ही तवज्ज़ो दी, जितनी मशीन द्वारा बनायीं चीज़ों को। इसलिए आज तक बहुत सारा देहाती ज्ञान अभी भी लोगों को याद है। हां, लेकिन पाकिस्तानी देहातों से तो कम ही है। यहाँ फसलों में यूरिया और GMO का इस्तेमाल करते करते देसी बीज लगभग ख़त्म हो गए थे। इतना हनन हुआ इस ज्ञान का, कि अब कोई ऐसा बूढ़ा ज्ञानी मिल भी जाता है, तो उसके ज्ञान को सूचना समझ कर इखट्ठा कर लिया जाता है। उसके सन्दर्भ की समझ पर इतना ध्यान देने की ज़रुरत नहीं लगती।
खैर मैं इसलिए ये सब नहीं लिख रही हूँ। ये जो इतनी सुन्दर यादें है, उसमे एक याद ये भी है- उस तरफ मत जाना, उस घर में मत जाना, उन खेतों में मत जाओ। किसी ने सही ही कहा था, गाँव के लिए सुन्दर सुन्दर विचार सिर्फ ऊँची जाती वाले लोगों को ही आते है। एक बार उस मुसलमान, उस चमार, उस भंगी, उस साध, उस दलित को भी तो पुछा जाना चाहिए। क्या उनके अनुभूति, उनके अनुभव को कभी भी साहित्य का हिस्सा माना जायेगा? उनके साहित्य को किस 'वाद' का नाम दिया जायेगा? दया पवार का 'बलूत' उसके गाँव के बारे में बहुत बातें करती हैं । बताने की ज़रुरत नहीं कि उसके गाँव और मेरा गाँव में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है। गाँव में उन्हें हर पल महसूस होता होगा की ये जगह बहुत ही घटिया है, मुझ पर इतना दुर्व्यवहार क्यों होता है, मेरा और उसका भगवान् अलग है, फिर भी उसके पास ऐसा क्या है जो वो मुझ पर और हमारी औरतों पर इतना अत्याचार कर सकता है? मुझे यहाँ से बहुत दूर चले जाना चाहिए। लेकिन वो कौनसी बेड़ियाँ है जो मुझे और मेरे परिवार को छोड़ती है। कब मैं अपना क़र्ज़ चूका पाउँगा, कब मैं आज़ादी की सांस ले सकूंगा, कब मेरे खेत मेरे होंगे, कब मेरे बच्चे तीनों टाइम खाना खा सकेंगे?
ऐसे कितने ही सवालों से उसका गाँव बनता है। उन सवालों को तोड़ने के लिए वह शहर की तरफ दौड़ता है। ऐसा नहीं की वहां पर ऊँची ज़ात वाले लोग नहीं पहुंचे है। लेकिन शहर इतना बड़ा है, कि मेरे गाँव के ऊंची जाती के लोग तो मुझ तक पहुंच ही नहीं पाएंगे। शहर में तो वो सिर्फ एक नाम है, और उसे उसकी जाती की वजह से मिली हुई पहचान से निजात मिलती है। हां, जैसे जैसे शहर बड़े होते गए, वैसे ही गाँव के सामाजिक ढांचों का एक विस्तृत रूप होते चले गए। भेदभाव के नए रूप दिखने लगे। शहर बहुत ही बीमार और अमानुष दिखता लगा था। शहर के इस रूप को भी साहित्य और सिनेमा में बखूबी दिखाया गया। शहर से प्यार और नफरत के इर्द गिर्द एक पूरा 'वाद' बना दिया गया है। कई दृष्टिकोण से शहर को समझने की प्रक्रिया कई सैलून से चली आ रही है। मेरी किताब भी मुंबई शहर के लिए इस प्यार और नफरत को अकादमिक चोगा पहनाकर पेश करती है।
कोरोना काल में लॉकडाउन के चलते मनुष्य और उसके अस्तित्त्व पर कई सवाल उठ खड़े हुए। दिहाड़ी मज़दूर को शहर ने चार घंटे में ही पराया कर दिया उस परायेपन की मार लिए हुए वे सड़कों पर निकले पैदल, अपने गाँव की और। गाँव, जिसने उन्हें कभी अपना माना भी था या नहीं, लेकिन घर तो वही था, परिवार भी वही था, शहर में कमाए हुए पैसे भी गाँव में ही सुरक्षित पड़े थे। शहर बहुत निर्दयी तो था, लेकिन उसी शहर का एक मार्मिक रूप भी सामने आया। एक शहर नहीं, कई शहरों का ये रूप सामने आया।उन्हें खिलते, पिलाते, रुलाते, हँसते, लूटते हुए शहर उन्हें गाँव ले ही गए। लेकिन असली दिक्कत तब हुई, जब इस विकट परिस्थिति में भी गाँव अपने बच्चों के लिए कुछ नहीं कर पाए। शहरों ने तो जाते जाते उन्हें एक समय का भोजन या चप्पल तो दे दी थी, लेकिन गाँव उन्हें कुछ भी नहीं दे पाया। एक महीने के लिए खाना भी नहीं। उनके बचाये हुए सारे पैसे जब ख़त्म हो गए, तो शहर की ही याद आयी। क्या देश के गाँव में सच में इतनी गरीबी है? अगर है तो बस्तियां ख़त्म हो जानी चाहिए, जैसे इतिहास में कई बार हुआ है। शहर पर इतना आश्रित हो गए है गाँव, की इन कठिन क्षणों में अपने बच्चों को तीन महीने भी अपने पास नहीं रख पाए? ये आर्थिक गरीबी है या मन की?
अब कुछ मज़दूर वापस आ गए है। क्या सोच रहे है, वे शहर के बारे में, क्या सोच रहे वे गाँव के बारे में। क्या अब वे पूरे शहरी हो गए? क्या अब उसे गाँव की यादें नहीं सताएंगी? क्या अब वे गाँव कभी नहीं जायेंगे? जाएंगे तो कब जाएंगे? अब गाँव उनके लिए क्या है? अब शहर उनके लिए क्या है? क्या अब उनकी सोच किसी भी प्रकार से बदलेगी? शहर तो वहशी होते हुए भी मानवीय हो गए थे। लेकिन क्या गाँव उन गुमनाम लोगों के लिए सदियों से जो निर्दयी रहे है, वे अभी भी निर्दयी रहेंगे?
जिनके गाँव होते है, उनके पास गाँव की बहुत सारी कहानियां होती है- एक या कई कुत्ते के साथ, एक गाय के साथ, एक या कई पेड़ों के साथ, कोई नदी, तालाब के साथ, कोई भोजाई के साथ, कोई दोस्त या दोस्तों के साथ, कोई मेले की, कोई स्कूल और उसके मास्टर की, किसी पकवान की, कई त्योहारों की, गर्मी की, सर्दी की, बारिश की, पहले प्यार की, ऐसे ही कितनी कहानियां... वो कहानियां, जो उसके बचपन को सुखद, जवानी को गरम करती होगी। कई लोग वो सब यादों को किताबों में लिख कर प्रसिद्ध भी हो गए। साहित्य में कई तरह के 'वाद' भी स्थापित हो गए।
फिर गाँधी ने तो कह ही दिया की गाँव का सर्वनाश ही देश का सर्वनाश है। इसलिए गाँव को जीवित रखना और उसकी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने की ताकीद भी दी। नेहरू ने देश को औद्योगीकरण के साथ गाँव को संवारने के लिए कई कदम उठाये। हाथ के काम को भी उतनी ही तवज्ज़ो दी, जितनी मशीन द्वारा बनायीं चीज़ों को। इसलिए आज तक बहुत सारा देहाती ज्ञान अभी भी लोगों को याद है। हां, लेकिन पाकिस्तानी देहातों से तो कम ही है। यहाँ फसलों में यूरिया और GMO का इस्तेमाल करते करते देसी बीज लगभग ख़त्म हो गए थे। इतना हनन हुआ इस ज्ञान का, कि अब कोई ऐसा बूढ़ा ज्ञानी मिल भी जाता है, तो उसके ज्ञान को सूचना समझ कर इखट्ठा कर लिया जाता है। उसके सन्दर्भ की समझ पर इतना ध्यान देने की ज़रुरत नहीं लगती।
खैर मैं इसलिए ये सब नहीं लिख रही हूँ। ये जो इतनी सुन्दर यादें है, उसमे एक याद ये भी है- उस तरफ मत जाना, उस घर में मत जाना, उन खेतों में मत जाओ। किसी ने सही ही कहा था, गाँव के लिए सुन्दर सुन्दर विचार सिर्फ ऊँची जाती वाले लोगों को ही आते है। एक बार उस मुसलमान, उस चमार, उस भंगी, उस साध, उस दलित को भी तो पुछा जाना चाहिए। क्या उनके अनुभूति, उनके अनुभव को कभी भी साहित्य का हिस्सा माना जायेगा? उनके साहित्य को किस 'वाद' का नाम दिया जायेगा? दया पवार का 'बलूत' उसके गाँव के बारे में बहुत बातें करती हैं । बताने की ज़रुरत नहीं कि उसके गाँव और मेरा गाँव में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है। गाँव में उन्हें हर पल महसूस होता होगा की ये जगह बहुत ही घटिया है, मुझ पर इतना दुर्व्यवहार क्यों होता है, मेरा और उसका भगवान् अलग है, फिर भी उसके पास ऐसा क्या है जो वो मुझ पर और हमारी औरतों पर इतना अत्याचार कर सकता है? मुझे यहाँ से बहुत दूर चले जाना चाहिए। लेकिन वो कौनसी बेड़ियाँ है जो मुझे और मेरे परिवार को छोड़ती है। कब मैं अपना क़र्ज़ चूका पाउँगा, कब मैं आज़ादी की सांस ले सकूंगा, कब मेरे खेत मेरे होंगे, कब मेरे बच्चे तीनों टाइम खाना खा सकेंगे?
ऐसे कितने ही सवालों से उसका गाँव बनता है। उन सवालों को तोड़ने के लिए वह शहर की तरफ दौड़ता है। ऐसा नहीं की वहां पर ऊँची ज़ात वाले लोग नहीं पहुंचे है। लेकिन शहर इतना बड़ा है, कि मेरे गाँव के ऊंची जाती के लोग तो मुझ तक पहुंच ही नहीं पाएंगे। शहर में तो वो सिर्फ एक नाम है, और उसे उसकी जाती की वजह से मिली हुई पहचान से निजात मिलती है। हां, जैसे जैसे शहर बड़े होते गए, वैसे ही गाँव के सामाजिक ढांचों का एक विस्तृत रूप होते चले गए। भेदभाव के नए रूप दिखने लगे। शहर बहुत ही बीमार और अमानुष दिखता लगा था। शहर के इस रूप को भी साहित्य और सिनेमा में बखूबी दिखाया गया। शहर से प्यार और नफरत के इर्द गिर्द एक पूरा 'वाद' बना दिया गया है। कई दृष्टिकोण से शहर को समझने की प्रक्रिया कई सैलून से चली आ रही है। मेरी किताब भी मुंबई शहर के लिए इस प्यार और नफरत को अकादमिक चोगा पहनाकर पेश करती है।
कोरोना काल में लॉकडाउन के चलते मनुष्य और उसके अस्तित्त्व पर कई सवाल उठ खड़े हुए। दिहाड़ी मज़दूर को शहर ने चार घंटे में ही पराया कर दिया उस परायेपन की मार लिए हुए वे सड़कों पर निकले पैदल, अपने गाँव की और। गाँव, जिसने उन्हें कभी अपना माना भी था या नहीं, लेकिन घर तो वही था, परिवार भी वही था, शहर में कमाए हुए पैसे भी गाँव में ही सुरक्षित पड़े थे। शहर बहुत निर्दयी तो था, लेकिन उसी शहर का एक मार्मिक रूप भी सामने आया। एक शहर नहीं, कई शहरों का ये रूप सामने आया।उन्हें खिलते, पिलाते, रुलाते, हँसते, लूटते हुए शहर उन्हें गाँव ले ही गए। लेकिन असली दिक्कत तब हुई, जब इस विकट परिस्थिति में भी गाँव अपने बच्चों के लिए कुछ नहीं कर पाए। शहरों ने तो जाते जाते उन्हें एक समय का भोजन या चप्पल तो दे दी थी, लेकिन गाँव उन्हें कुछ भी नहीं दे पाया। एक महीने के लिए खाना भी नहीं। उनके बचाये हुए सारे पैसे जब ख़त्म हो गए, तो शहर की ही याद आयी। क्या देश के गाँव में सच में इतनी गरीबी है? अगर है तो बस्तियां ख़त्म हो जानी चाहिए, जैसे इतिहास में कई बार हुआ है। शहर पर इतना आश्रित हो गए है गाँव, की इन कठिन क्षणों में अपने बच्चों को तीन महीने भी अपने पास नहीं रख पाए? ये आर्थिक गरीबी है या मन की?
अब कुछ मज़दूर वापस आ गए है। क्या सोच रहे है, वे शहर के बारे में, क्या सोच रहे वे गाँव के बारे में। क्या अब वे पूरे शहरी हो गए? क्या अब उसे गाँव की यादें नहीं सताएंगी? क्या अब वे गाँव कभी नहीं जायेंगे? जाएंगे तो कब जाएंगे? अब गाँव उनके लिए क्या है? अब शहर उनके लिए क्या है? क्या अब उनकी सोच किसी भी प्रकार से बदलेगी? शहर तो वहशी होते हुए भी मानवीय हो गए थे। लेकिन क्या गाँव उन गुमनाम लोगों के लिए सदियों से जो निर्दयी रहे है, वे अभी भी निर्दयी रहेंगे?
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