पसंद नापसंद
आज फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ी। पाब्लो नेरुदा के बारे में। पता चला की उसने एक लड़की का रेप किया था। लिखने वाला/ वाली ने कहा अब मैं उसकी कविता कभी नहीं पढ़ाऊंगा/ पढ़ाऊंगी। अगर करना ही पड़ा तो ये बात भी बताउंगी। फिर लोगों ने और ऐसे कलाकारों के नाम लिए जिन्होंने ये कुकर्म किया है। साथ ही ये बहस भी शुरू हुई की इसमें कला (कविता, पेंटिंग) इत्यादि का क्या दोष है? कला को तो अप्प्रेसिअट करना चाहिए। हां, ये बात भी कही गयी की कलाकार की ये बात भी बतानी चाहिए। हमारे टीचर तो हमें बताते थे ये सारी बातें।
पहली बात जो ज़हन में आयी, की तुम सभी का कभी शोषण नहीं हुआ। जब तुम को ये बात नहीं पता चल रही है की, जो भी दुराचारी होता है, उसे प्रताड़ित व्यक्ति कभी भी पसंद करेगा/ करेगी। ज़्यादातर तो वो नफ़रत की ही भावना रहती है। उसकी क्या सोच है, सिर्फ वही मायने रखती है। उसके मन पर क्या बीती होगी, कितना समय लग होगा उससे उबरने के लिए, ये सब मायने रखता है। तुम्हारे कुछ भी सोचने से उसे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। हां, हम सब मोरलिस्टिक स्टैंड ज़रूर ले सकते है। इसका हक़ सबको है। लेकिन उससे तुम हासिल क्या करोगे? तुमको क्या मिलेगा? उसे तो कुछ नहीं मिला, किसी से क्या उसने मन की बात की होगी?
मैं तो कुछ और ही कहना चाहती हूँ। इरफ़ान खान चले गए इस दुनिया से। उस दिन सारी दुनिया बहुत ग़मगीन हुई। वाकई कमाल के कलाकार, और उससे बेहतर, इंसान थे। मुझे इस बात का ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा। ख़राब भी लगा कि, भले ही मैं उनकी कला को समझती हूँ, लेकिन मैं रो नहीं पा रही हूँ। अगले दिन ऋषि कपूर चले गए, और मैं बहुत रोई। ऐसा लगा कि एक हिस्सा खत्म हो गया। मैंने वो सारे गाने भी सुने, वो सारे लम्हें याद किये, जो उनके गानों और मेरी ज़िन्दगी से जुड़े है। हाँ, वो रोमांटिक हीरो है और इरफ़ान एक अलग किस्म के कलाकार है। दोनों की तुलना करना वाजिब नहीं है।
लेकिन मुझे ये सब अजीब लग रहा था। मैं सोचने लगी, इरफ़ान क्यों उतना मेरे जहन में नहीं उतरे, जितना ऋषि कपूर। मुझे पिछली बातें याद आने लगी। ऐसा क्या था? वैसे भी ऐसी बातें भूली नहीं जाती। पाब्लो जैसा कोई आया और बहुत कुछ बदल गया। उसे इरफ़ान पसंद था, मुझे इसलिए नहीं पसंद था। बहुत सोचना ही नहीं पड़ा था कि पसंद नहीं है। बाद में 'लाइफ इन अ मेट्रो' और 'हैदर' का इरफ़ान ही मन से पसंद आया था। वो भी इसलिए कि मैं बहुत दूर आ गयी थी उस पाब्लो से।
तुमको बताऊँ, मुझे इसी कारण से जगजीत सिंह भी नहीं पसंद। इन फैक्ट, मुझे ग़ज़ल गायकी ही नहीं पसंद। क्योंकि उसे पसंद थी। अब जब ग़ज़लें पसंद करने लगी हूँ, तो भी वो ३-४ गाने तो सुन ही नहीं सकती अभी भी, कभी भी। उनके टप्पे सुनती हूँ। हर वो कलाकार जो उसे पसंद था, मुझे नहीं था। हर उस चीज़ से नफरत होना या भाग जाना, जो उसकी थोड़ी सी भी याद दिलाती है। मेहदी हसन भी बहुत समय बाद पसंद आने लगे, लेकिन मुझे ही पता था कि कितनी मेहनत की मैंने, याद और कला और कलाकार के बीच लकीरें खींचने में, और एक नयी सुन्दर याद बनाने में।
ऋषि कपूर अपनी बीवी से बुरा बर्ताव के लिए बदनाम थे। उनके मरने पर कइयों ने उनकी बुरी आदतों का बखान किया। मेरे लिए तो रोमांस का मतलब ही ऋषि कपूर थे, है अभी भी। सिनेमा का कमाल है ये शायद, लेकिन वो जिस तरह उनकी आँखें से अपनी हीरोइन को देखते थे, वो प्यार हो या लालसा से, ऐसा लगता था, की सच्चाई तो यही है। खैर यादें भी सुन्दर वाली जुड़ी है उनके गानों के साथ। जिसे मैं सबसे ज़्यादा प्यार करती हूँ, उसके साथ की यादों में ऋषि कपूर और उनके गाने है। आज भी एक मुस्कान आती है चेहरे पर। अच्छे लम्हों की याद में, शुक्रिया करते हुए की ऐसे लम्हें आये ज़िन्दगी में। 'प्रेम रोग' देखते हुए आज भी उदास मन खुश हो कर ज़िन्दगी जीने की हिम्मत देता है। जैसे 'गाइड' फिल्म करती है। इंसान होने की अपार शक्ति को महसूस करवाती है।
रोमांस के मामले में विनोद महरा भी याद आते है। इतना कोई बड़ा नाम नहीं उनका, लेकिन वो पसंद है। तुम हँस रहे होंगे, इस लड़की को क्या बोले। तुम्हें ये बताऊँ नापसंदगी से पसंदगी के इस सफर में मुझे बहुत मज़ा आया है। नफ़रत से डर से रोने से चीखने से उपेक्षा करने से एक बार सुनने से एक और बार सुनने से चलो ठीक है सुन लेते है से फाइनली सुना जा सकता है, का ये सफर, कभी मिनिटों में तय किया, कभी सालों लग गए। कई तो अभी तक भी नहीं सुन या देख सकते।
रेपिस्ट से सिर्फ नफ़रत की जा सकती है या हमेशा की जानी चाहिए, ये तो मुझे नहीं पता। सिर्फ इतना पता है की उसे भूला जा सकता है, और उसे भूल जाना चाहिए। क्योंकि अगर भूल नहीं पाए तो आगे जी नहीं पाएंगे, हँस नहीं पाएंगे, नयी कला का उपसर्जन नहीं कर पाएंगे, इस मेन्टल ब्लॉक से उभर नहीं पाएंगे, और किसी और को प्यार नहीं कर पाएंगे। उस कुकर्मी को भूल ही जाना चाहिए इतिहास में भी, यही मेरा सबसे बड़ा बदला होगा उससे। आज मुझे इरफ़ान पसंद है, ऋषि कपूर भी, जगजीत सिंह और मेहदी हसन भी, और हर वो कलाकार, जो मुझे पहले नहीं पसंद था, लेकिन ये मेरी काबिलियत है, उस पाब्लो की नहीं। रही बात उस नेरुदा की, तो मुझे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता, उसे भुला दिया जाए तो तो बहुत अच्छा है। अगर नहीं भूलना है, तो नफ़रत से क्यों याद रखना है, फिर तो वो कविता का भगवान बना हुआ ही है। तुम्हारे रिसिस्टैंस का स्वागत है, प्रिय दोस्त।
पहली बात जो ज़हन में आयी, की तुम सभी का कभी शोषण नहीं हुआ। जब तुम को ये बात नहीं पता चल रही है की, जो भी दुराचारी होता है, उसे प्रताड़ित व्यक्ति कभी भी पसंद करेगा/ करेगी। ज़्यादातर तो वो नफ़रत की ही भावना रहती है। उसकी क्या सोच है, सिर्फ वही मायने रखती है। उसके मन पर क्या बीती होगी, कितना समय लग होगा उससे उबरने के लिए, ये सब मायने रखता है। तुम्हारे कुछ भी सोचने से उसे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। हां, हम सब मोरलिस्टिक स्टैंड ज़रूर ले सकते है। इसका हक़ सबको है। लेकिन उससे तुम हासिल क्या करोगे? तुमको क्या मिलेगा? उसे तो कुछ नहीं मिला, किसी से क्या उसने मन की बात की होगी?
मैं तो कुछ और ही कहना चाहती हूँ। इरफ़ान खान चले गए इस दुनिया से। उस दिन सारी दुनिया बहुत ग़मगीन हुई। वाकई कमाल के कलाकार, और उससे बेहतर, इंसान थे। मुझे इस बात का ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा। ख़राब भी लगा कि, भले ही मैं उनकी कला को समझती हूँ, लेकिन मैं रो नहीं पा रही हूँ। अगले दिन ऋषि कपूर चले गए, और मैं बहुत रोई। ऐसा लगा कि एक हिस्सा खत्म हो गया। मैंने वो सारे गाने भी सुने, वो सारे लम्हें याद किये, जो उनके गानों और मेरी ज़िन्दगी से जुड़े है। हाँ, वो रोमांटिक हीरो है और इरफ़ान एक अलग किस्म के कलाकार है। दोनों की तुलना करना वाजिब नहीं है।
लेकिन मुझे ये सब अजीब लग रहा था। मैं सोचने लगी, इरफ़ान क्यों उतना मेरे जहन में नहीं उतरे, जितना ऋषि कपूर। मुझे पिछली बातें याद आने लगी। ऐसा क्या था? वैसे भी ऐसी बातें भूली नहीं जाती। पाब्लो जैसा कोई आया और बहुत कुछ बदल गया। उसे इरफ़ान पसंद था, मुझे इसलिए नहीं पसंद था। बहुत सोचना ही नहीं पड़ा था कि पसंद नहीं है। बाद में 'लाइफ इन अ मेट्रो' और 'हैदर' का इरफ़ान ही मन से पसंद आया था। वो भी इसलिए कि मैं बहुत दूर आ गयी थी उस पाब्लो से।
तुमको बताऊँ, मुझे इसी कारण से जगजीत सिंह भी नहीं पसंद। इन फैक्ट, मुझे ग़ज़ल गायकी ही नहीं पसंद। क्योंकि उसे पसंद थी। अब जब ग़ज़लें पसंद करने लगी हूँ, तो भी वो ३-४ गाने तो सुन ही नहीं सकती अभी भी, कभी भी। उनके टप्पे सुनती हूँ। हर वो कलाकार जो उसे पसंद था, मुझे नहीं था। हर उस चीज़ से नफरत होना या भाग जाना, जो उसकी थोड़ी सी भी याद दिलाती है। मेहदी हसन भी बहुत समय बाद पसंद आने लगे, लेकिन मुझे ही पता था कि कितनी मेहनत की मैंने, याद और कला और कलाकार के बीच लकीरें खींचने में, और एक नयी सुन्दर याद बनाने में।
ऋषि कपूर अपनी बीवी से बुरा बर्ताव के लिए बदनाम थे। उनके मरने पर कइयों ने उनकी बुरी आदतों का बखान किया। मेरे लिए तो रोमांस का मतलब ही ऋषि कपूर थे, है अभी भी। सिनेमा का कमाल है ये शायद, लेकिन वो जिस तरह उनकी आँखें से अपनी हीरोइन को देखते थे, वो प्यार हो या लालसा से, ऐसा लगता था, की सच्चाई तो यही है। खैर यादें भी सुन्दर वाली जुड़ी है उनके गानों के साथ। जिसे मैं सबसे ज़्यादा प्यार करती हूँ, उसके साथ की यादों में ऋषि कपूर और उनके गाने है। आज भी एक मुस्कान आती है चेहरे पर। अच्छे लम्हों की याद में, शुक्रिया करते हुए की ऐसे लम्हें आये ज़िन्दगी में। 'प्रेम रोग' देखते हुए आज भी उदास मन खुश हो कर ज़िन्दगी जीने की हिम्मत देता है। जैसे 'गाइड' फिल्म करती है। इंसान होने की अपार शक्ति को महसूस करवाती है।
रोमांस के मामले में विनोद महरा भी याद आते है। इतना कोई बड़ा नाम नहीं उनका, लेकिन वो पसंद है। तुम हँस रहे होंगे, इस लड़की को क्या बोले। तुम्हें ये बताऊँ नापसंदगी से पसंदगी के इस सफर में मुझे बहुत मज़ा आया है। नफ़रत से डर से रोने से चीखने से उपेक्षा करने से एक बार सुनने से एक और बार सुनने से चलो ठीक है सुन लेते है से फाइनली सुना जा सकता है, का ये सफर, कभी मिनिटों में तय किया, कभी सालों लग गए। कई तो अभी तक भी नहीं सुन या देख सकते।
रेपिस्ट से सिर्फ नफ़रत की जा सकती है या हमेशा की जानी चाहिए, ये तो मुझे नहीं पता। सिर्फ इतना पता है की उसे भूला जा सकता है, और उसे भूल जाना चाहिए। क्योंकि अगर भूल नहीं पाए तो आगे जी नहीं पाएंगे, हँस नहीं पाएंगे, नयी कला का उपसर्जन नहीं कर पाएंगे, इस मेन्टल ब्लॉक से उभर नहीं पाएंगे, और किसी और को प्यार नहीं कर पाएंगे। उस कुकर्मी को भूल ही जाना चाहिए इतिहास में भी, यही मेरा सबसे बड़ा बदला होगा उससे। आज मुझे इरफ़ान पसंद है, ऋषि कपूर भी, जगजीत सिंह और मेहदी हसन भी, और हर वो कलाकार, जो मुझे पहले नहीं पसंद था, लेकिन ये मेरी काबिलियत है, उस पाब्लो की नहीं। रही बात उस नेरुदा की, तो मुझे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता, उसे भुला दिया जाए तो तो बहुत अच्छा है। अगर नहीं भूलना है, तो नफ़रत से क्यों याद रखना है, फिर तो वो कविता का भगवान बना हुआ ही है। तुम्हारे रिसिस्टैंस का स्वागत है, प्रिय दोस्त।
Awesome..
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