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Showing posts from September, 2020

क्या याद है?

हम दोनों जब भी मिलते, सिर्फ हंसते थे। ९थ बी की क्लास में मैं तुमसे पहली बार मिली। मैं एक बहुत छोटे कॉन्वेंट इंग्लिश मीडियम स्कूल से बहुत बड़े कॉन्वेंट इंग्लिश मीडियम स्कूल में आ गई थी। स्कूल के समय के दोस्तों के बारे में सोचते है तो याद नहीं आता कि कैसे दोस्ती शुरू हुई। कॉलेज के दोस्तों के साथ कुछ कुछ याद रह जाता है। खैर, वो शुरुआत याद करने की ज़रूरत भी नहीं है। मुझे याद है में, वैशाली और प्रशांत बहुत हंसते रहते, पूरे दिन क्लास में। इतने सारे और वाकई बहुत अच्छे क्वालिटी के जोक्स हम मारते, अगर आज वैसे होते तो स्टैंड अप में खूब शोहरत कमा लेते। टीचर की नक़ल उतारना तो आम बात थी। फ़िर हम दोनों को क्लास के बाहर निकाल दिया जाता। पूरे साल क्लास में मैं एक ही लड़की थी, जो एक लड़के के साथ बाहर निकाल दी गई। एक टीचर को तो लगता की हमारा चक्कर चल रहा है। लेकिन हम दोनों की हंसी नहीं रुकती। हमारी क्लास में परमानेंट सीटिंग सिस्टम नहीं, रोटेशनल सीटिंग सिस्टम होता था। मुझे लगता है कि हम दोनों ही इंतजार करते की कब एक दूसरे के अगल बगल वाली बेंच पर बैठ जाए और फ़िर से हंसना चालू करे। मतलब हर १५ मिनट में एक न...

ज़िम्मेदार

 एक बार फ़िर मौक़ा मिला ज़िम्मेदारी उठाने का। एक बार फ़िर मैं भाग गई। हा, तुमने सोचा होगा, तुम तो हो ही ऐसी। अगर ज़िम्मेदार होती तो शादी करती, बच्चे पैदा करती, एक जगह नौकरी करती, एक जगह टिकी रहती। हा, मैंने फ़िर से तुम्हें निराश नहीं किया, मैं भाग आयी। अब मेरा पीछा छोड़ दो थोड़ी देर के लिए, मुझे कहने दे अपने मन की बात, या फ़िर निकालने दे अपनी भड़ास। ये तो पता है की ज़िममेदारी किसी को भी नहीं पसंद, और ये हमेशा थोपी जाती है, फ़िर लोगों को मज़ा आने लगता है, ज़िम्मेदारी उठाने में। ज़िन्दगी यूं ही निकल जाती है। मुझे भी अच्छा लगता है अब। इन बच्चों की ज़िम्मेदारी ज़िम्मेदारी नहीं लगती है, वो तो प्यार है।  पर ज़िम्मेदारी का भी तो एक संदर्भ होता होगा, कुछ नियम, कानून, इंसेंटिव होता होगा। एक दिन ऐसे ही कोई उठ कर बोल सकता है कि ज़िम्मेदारी ले लो। पहले इतनी बार मिन्नते की कि दो दिन और रहने दो इनको मेरे पास, लेकिन तुम ट्स से मस न हुए। मुझे भाग कर निश्चित समय पर ले कर आना पड़ा तुम्हारे पास।  इस बार भी तुमने ऐसी ही किसी दुविधा में डाल दिया। मैंने मना तो कर दिया है तुम्हे की मैं नहीं ध...

प्रेम का संदेश

 प्रेम का संदेश प्रेम का संदेश कैसा होता है? उसका रंग कैसा होता है, उसकी खुशबू कैसी होती है, उसका आकार कैसा होता है, उसका संगीत कैसा होता है, उसके शब्द कैसे होते है? ये संदेश जीवन में कितनी बार मिलता है? या दिन में, या महीने में, या साल में कितनी बार मिलता है? कितने लोगों से मिलता है, या एक ही से मिलता है, या कुछ ही लोगों से मिलता है? क्या हमको पता चलता है कि कौनसा संदेश प्रेम भरा है, या दोस्ती भरा या नफरत भरा? कितने प्रकार के प्रेम संदेश होते है दुनिया में, इसकी कोई थिअरी है क्या? मुझे तो कइयों प्रेम संदेश मिले है, ऐसा मुझे लगता है। ये कहानी मैं सीधे ही उन घटनाओं से शुरू कर सकती थी, लेकिन मुझे सस्पेंस बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए अब आगे पढ़े। एक और डिस्क्लेमर। ये सारे किस्से मर्दों के साथ है, लेकिन उनकी मर्दानगी को में इंसिदेंटल मानना चाहती हूं। लेकिन अगले ही क्षण ऐसा भी लगता है कि वे सभी अगर मर्द नहीं होते, तो ये प्रेम के संदेश मैं नहीं जान पाती। तो मैं तैयार हूं जज होने के लिए। एक वीरान सा ५० एकड़ की ज़मीन। मैंने सोचा था गायों के लिए छांव होनी चाहिए। अखिलेश के साथ ठाना ...

छत

छत नीचे जाना निषेध था। घर पर पूरा दिन रहना मुश्किल था। बची सिर्फ एक छत। दो सहेलियां जो आमने सामने रहती थी, कभी कभार मिलती थी, काम के व्यस्तता के कारण, अब तो रोज़ ही उन्हें घर पर रहना था। चलो छत ही बची थी अब टहलने को।  छत पर हर शाम जाने लगे। कई दिन तो अपने साथ क्या क्या हुआ इस आपबीती सुनाते हुए निकल गए। ऑफिस में अपना करियर ग्राफ कैसे बढ़ा या घटा, कौनसे टीम मेंबर ने कहां और कब और कैसे धोखा दिया, किसने साथ दिया, किसने मदद की, ये सब डिस्कस हुआ।  फ़िर प्यार की बातें होने लगी। कौन ऑफिस में अच्छा लगता? ऑफिस में नहीं तो बस स्टैंड रेलवे स्टेशन या बगल वाले ऑफिस का कोई लड़का कोई तो प्रेम भरी कहानी होती ही है, जिसका वृतांतपूर्ण डिस्कशन होता। फ़िर जब ये सब ख़त्म होने लगा, लेकिन छत पर जाना अभी भी ज़रूरी था, तो दोनों आसमान देखती। पक्षी - कौआ और कबूतर ही वहां पर थे, सो कुछ बातें पक्षियों की हो जाती। आसमान देख पहाड़ों पर बिताई हुई छुट्टी, या लोनावला की बारिश वाली यादें, या मुन्नार के पहाड़, कोई हॉलिडे तो याद ही आ जाता। फ़िर सपने देखे जाने लगते। एक बकट लिस्ट बनने लगती। इन जगहों पर जाना है, ये स...

लिखना

आज समझ नहीं आता कि क्या लिखूं। ऐसा हर क्षण महसूस करती हूं। ख्याल तो आते रहते हैं। कुछ ख्याल नये होते हैं, कुछ सालों से आते ही जा रहे हैं। जब ख्याल नये नये आते है, तो लगता है कि मैं जी रही हूं। सांस ले रही हूं। मेरा जीना सार्थक हुआ है, कम से कम आज के दिन तो सही। जिस दिन कोई नया ख्याल नहीं आता, उस दिन तो माता रूपी आवाज़ अंदर से आने लगती है, तेरा जीना तो बहुत ही विफल रहा है। मां बचपन में कहती थी कि कुछ तो बड़ा काम करना चाहिए। उसके बड़े काम के क्या मायने है, ये तो पता नहीं। लेकिन उस ' बड़े काम ' की लालसा में जीती रहती हूं। प्रेशर में तो नहीं जीती हूं, लेकिन वो चीज कचोटती तो खूब ही है।  एक और चीज़ मां के बारे में लगती है मुझे। मां से  मुझे परफेक्शन भी शायद मिला था। वो परफेक्शन को में कहां छोड़ अायी, या पकड़ रखा है, इसका कोई पता जवाब नहीं है।  कहते है कि जिनका सन साइन स्कॉर्पियो होता है, वो परफेक्शनिस्ट होते है। मेरे अंदर कहां से आता हैं, ये तो ज़रा भी पता नहीं है, सिर्फ इतना पता है, कि ज़िन्दगी को ज़्यादा फ़ायदा हुआ नहीं उससे। वहीं मोड़ पर है जहां सब है। लेकिन फिर याद आता है क...