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Showing posts from July, 2020

मौत

ये साल कई मौतें देखी। कई किस्म की मौंतें।  मौत के पहले जन्म होना भी देखा। जब वो पेट से थी, उसे भरपूर खाना खिलाया। भरपूर कितना भरपूर होता है, वो संदेहास्पद है। उसे दूसरे लोग भी खिलाते थे। फिर उसने जन्म दिया। खाना तो हम सब मिल कर देते रहते। फ़िर पिल्लू भी बाहर आने लगे। जब तक वो बीमार नहीं हुए, तब तक सब कुछ कितना सुन्दर था। नाचते रहते मेरे साथ गली में। मेरे बब्बन और लैला से डर कर अपनी अम्मा के पास भाग जाते। मुझे उनको दूध पिलाने के लिए बब्बन और लैला से बचकर बाहर जाना पड़ता। लेकिन मुझे बहुत मज़ा आता। फ़िर एक पिल्लू बीमार पड़ी। पहली बार एक रोड के पिल्लू को लेकर डॉक्टर के पास गयी। जाना इतनी बड़ी बात नहीं थी, जितना ये निर्णय लेना कि जाना चाहिए या नहीं। कुत्तों के लिए कुछ भी करने का कर्म उतना मेहनतकश नहीं है, जितना ये सोचना की मैं ये करुँ या नहीं। ये सोचने में ही सबसे ज़्यादा ऊर्जा व्यय होती है। कई सवाल आते है- मैं करूँ या नहीं? करूँ तो क्यों करून? अगर नहीं करुँगी तो क्या होगा? अगर करुँगी तो क्या होगा? सिर्फ एक बार डॉक्टर के पास ले जाने से कुछ नहीं होगा, इसका आगे भी ध्यान रखना होगा, ऐसी हालत मे...

गाँव निर्दयी है!

हमारे देश में गाँवों पर कई बातें हुई है,और होती रहेगी। गाँव का महत्त्व जाने क्यों भारत देश में ही बार बार दोहराया जाता है। क्यों गाँव को भूला नहीं जा सकता? क्यों गाँव को याद रखना ज़रूरी है? ऐसा क्या है गाँव में, जो हम को एक भूली हुई दुनिया में बसने देता है, बात करने के लिए एक टॉपिक देता है, कुछ करने के लिए भावुक और आतुर करता है? जिनके गाँव होते है, उनके पास गाँव की बहुत सारी कहानियां होती है- एक या कई कुत्ते के साथ, एक गाय के साथ, एक या कई पेड़ों के साथ, कोई नदी, तालाब के साथ, कोई भोजाई के साथ, कोई दोस्त या दोस्तों के साथ, कोई मेले की, कोई स्कूल और उसके मास्टर की, किसी पकवान की, कई त्योहारों की, गर्मी की, सर्दी की, बारिश की, पहले प्यार की, ऐसे ही कितनी कहानियां... वो कहानियां, जो उसके बचपन को सुखद, जवानी को गरम करती होगी। कई लोग वो सब यादों को किताबों में लिख कर प्रसिद्ध भी हो गए। साहित्य में कई तरह के 'वाद' भी स्थापित हो गए। फिर गाँधी ने तो कह ही दिया की गाँव का सर्वनाश ही देश का सर्वनाश है। इसलिए गाँव को जीवित रखना और उसकी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने की ताकीद भी दी। ने...

मेहबूब या मेहबूबा

कोई शहर पुरुष होता है या स्त्री? किसी शहर के बारे में ऐसा ख्याल क्यों आता है?अपने सुकून के लिए उसके साथ कोई भी रिश्ता बनाने की ज़रूरत क्या है? सर, पुर, नगर, आबाद, इत्यादि क्रियाविशेषण लगा कर हमने अमृतसर, नागपुर, कानपुर, अहमदनगर, हैदराबाद, नाम लिख डाले शहरों के। हर शहर अपने आप फलता फूलता और तबाह हो जाता। उसकी जगह पर या १५-२० किलोमीटर दूर कोई और शहर बस जाता। क्योंकि उसमे धन कमाने का और समृद्ध होने की क्षमता है, उसे तो पुल्लिंग ही होना था। भाषा  और जेंडर की पॉलिटिक्स का असर हो शायद। क्या फ़र्क पड़ता था? आज बंबई के जेंडर पर विचार कर रही हूं। एक और जगह पर मैंने बंबई को तुम कहा है, एक मर्द, एक पुरुष समझकर। बंबई से तो मेरा प्रेमियों वाला रिश्ता ही है। जब मैं उसकी सड़कों पर चलती थी, बहुत अरमान लिए, तब बंबई मुझे सहेली जैसा तो नहीं लगा। हाँ, एक मज़बूत  सहारा जैसा तो महसूस होता था। शायद इसलिए कि मुझे उस पर चलती हुई कार, बस, ट्रेन, काफी भारी और जटिल दिखती थी। शायद वो एक लम्बी रोड़ की तरह सीधा सा था। शायद वो हमेशा मेरे लिए मौजूद रहता। या उसका शांत समंदर अपनी आहोश में लेकर मुझे भी शांत...

पसंद नापसंद

आज फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ी। पाब्लो नेरुदा के बारे में। पता चला की उसने एक लड़की का रेप किया था। लिखने वाला/ वाली ने कहा अब मैं उसकी कविता कभी नहीं पढ़ाऊंगा/ पढ़ाऊंगी। अगर करना ही पड़ा तो ये बात भी बताउंगी। फिर लोगों ने और ऐसे कलाकारों के नाम लिए जिन्होंने ये कुकर्म किया है। साथ ही ये बहस भी शुरू हुई की इसमें कला (कविता, पेंटिंग) इत्यादि का क्या दोष है? कला को तो अप्प्रेसिअट करना चाहिए। हां, ये बात भी कही गयी की कलाकार की ये बात भी बतानी चाहिए। हमारे टीचर तो हमें बताते थे ये सारी बातें। पहली बात जो ज़हन में आयी, की तुम सभी का कभी शोषण नहीं हुआ। जब तुम को ये बात नहीं पता चल रही है की, जो भी दुराचारी होता है, उसे प्रताड़ित व्यक्ति कभी भी पसंद करेगा/ करेगी। ज़्यादातर तो वो नफ़रत की ही भावना रहती है। उसकी क्या सोच है, सिर्फ वही मायने रखती है। उसके मन पर क्या बीती होगी, कितना समय लग होगा उससे उबरने के लिए, ये सब मायने रखता है। तुम्हारे कुछ भी सोचने से उसे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। हां, हम सब मोरलिस्टिक स्टैंड ज़रूर ले सकते है। इसका हक़ सबको है। लेकिन उससे तुम हासिल क्या करोगे? तुमको क्या मिलेगा? उसे तो क...

महानगर की कला

मैं एक लड़की हूँ।  मैं कहीं भी रह सकती हूँ। सड़क, गली, मोहल्ला, पेड़ों के बीच, गाय- बैलों के साथ, मैं कहीं भी हो सकती हू।  तुमने मुझे बहुत बार देखा है, कहाँ देखा लेकिन, ये तो तुम मुझे बताओगे।  तुमने मुझे पहली बार कहाँ देखा था, बताओ ना। उस दिन कैसी हवाएँ चल रही थी, सूरज की रौशनी किस तरफ थी, तुमने कौनसी शर्ट पहनी थी, मैंने क्या पहना था, कौनसे झुमके, कौनसी रंग की चूड़ियाँ, क्या तुम्हे याद है? इस बार हम लोग नहीं मिल पाए। तुम्हारा जन्मदिन था, मैं केक ले आयी थी, एक दुसरे शहर की सबसे पुरानी बेकरी से प्लम केक। मुझे केक दे कर नीचे से ही लौटना पड़ा था।  ये कैसा समय आया है हमारे बीच? ये हमें पुराने जैसा नहीं रहने दे रहा। हम पहले जैसे मिल नहीं पाते है, आँखों में आँखें डाल कर हँस पड़ते थे, एक ही प्लेट में हर घंटे खाना खा लेते थे, खेल खेलते रहते थे। जितनी बार इस शहर में आयी हूँ, तुमसे हर बार मिली हूँ । अब सब कुछ बदला हैं।  तुम नहीं बदले हो, मैं नहीं बदली हूँ, लेकिन सब कुछ बदला तो हैं। ये शहर उस रात को इतना खाली था कि क्या बताऊ ? रात को तो शहर खाली हो ही जाता है, ना! नहीं, एक म...