मौत
ये साल कई मौतें देखी। कई किस्म की मौंतें। मौत के पहले जन्म होना भी देखा। जब वो पेट से थी, उसे भरपूर खाना खिलाया। भरपूर कितना भरपूर होता है, वो संदेहास्पद है। उसे दूसरे लोग भी खिलाते थे। फिर उसने जन्म दिया। खाना तो हम सब मिल कर देते रहते। फ़िर पिल्लू भी बाहर आने लगे। जब तक वो बीमार नहीं हुए, तब तक सब कुछ कितना सुन्दर था। नाचते रहते मेरे साथ गली में। मेरे बब्बन और लैला से डर कर अपनी अम्मा के पास भाग जाते। मुझे उनको दूध पिलाने के लिए बब्बन और लैला से बचकर बाहर जाना पड़ता। लेकिन मुझे बहुत मज़ा आता। फ़िर एक पिल्लू बीमार पड़ी। पहली बार एक रोड के पिल्लू को लेकर डॉक्टर के पास गयी। जाना इतनी बड़ी बात नहीं थी, जितना ये निर्णय लेना कि जाना चाहिए या नहीं। कुत्तों के लिए कुछ भी करने का कर्म उतना मेहनतकश नहीं है, जितना ये सोचना की मैं ये करुँ या नहीं। ये सोचने में ही सबसे ज़्यादा ऊर्जा व्यय होती है। कई सवाल आते है- मैं करूँ या नहीं? करूँ तो क्यों करून? अगर नहीं करुँगी तो क्या होगा? अगर करुँगी तो क्या होगा? सिर्फ एक बार डॉक्टर के पास ले जाने से कुछ नहीं होगा, इसका आगे भी ध्यान रखना होगा, ऐसी हालत मे...